ये लेख मूलतह एक रेडियो फीचर की पटकथा है जिसे एक प्रोजेक्ट के तहत लिखा गया था। इसे लिखने में मुख्य भूमिका मेरे सहपाठी रोहित वत्स की रही। भोजपुरी संगीत में उपज रही अश्लीलता के कारणों पर यह लेख एक अच्छी समझ पैदा करता है।
समय बदला और उसी के साथ बदली हमारी रुचियां। शहरी क्षेत्रों में तेजी से हुए औद्योगीकरण और उससे उपजे पैसे ने जनता की पसंद नापसंद में कई बदलाव किये जिसका असर खान पान, रहन सहन, पहनावे सहित संगीत पर भी पड़ा। ब्रिटनी स्पेयर्स, जेनिफर लोपेज, माईकल जैक्सन से लेकर निर्वाणा और आईरन मेडन तक के गीत भारतीय जनमानस में अपनी जगह बनाते गये।
मगर इन सब धूम धड़ाकों के बीच हिन्दुस्तानियों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी रहा जिसने इन गीतों के मुकाबले अपनी भाषा में रचे गये संगीत को ही ज्यादा महत्व दिया। ऐसा ही एक बड़ा सा्रेता वर्ग है भोजपुरी भाषा के गीतों का।
भोजपुरी विष्व भर में 22 करोड़ से भी अधिक लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है। भारत, नेपाल, मौरिसस, फिजी, गुयाना, त्रिनिदाद टोबैगो और हौलेन्ड सहित भोजपुरी बोलने और समझने वाले लोग पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। फिजी, मौरिसस, त्रिनिदाद, गुयाना जैसे देशों में तो इसे राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त है। मूलतह भारत के एक राज्य बिहार में जन्मी इस भाषा का यही विशाल प्रयोग क्षेत्र भोजपुरी बोली में निर्मित गानों के लिए एक बड़ा बाजार उपलब्ध कराता है। केवल भारत की ही बात करें तो भी पश्चिम बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश , मुम्बई, दिल्ली, पंजाब आदि में भोजपुरी गीतों के कम से कम बीस करोड़ उपभोक्ता हैं।
भोजपुरी गीतों के साथ साथ फिल्मों के माध्यम से भी आम लोगों तक पहुंचती रही है जिसकी शुरुआत हुई सन 1961 में बनी फिल्म गंगा मैया तोहे पिहरी चढ़इवो से। बलम परदेसिया, सेनूर, हमार भौजी, दूल्हा गंगा पार के सरीखी फिल्मों से होता हुआ ये सफर पहुंचा सन 1973 में बनी गोल्डन जुबली फिल्म दंगल तक। लेकिन शेष भारत वर्ष में इसकी लोकप्रियता बढ़ाने का श्रेय जाता है 1982 में राजश्री प्रोडक्शन द्वारा प्रस्तुत की गई सुपर हिट फिल्म नदिया के पार को। फिल्म के साथ साथ इसका संगीत भी काफी सराहा गया।
लेकिन इसके बाद लम्बे समय तक भोजपुरी संगीत के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय प्र्रगति नही हुई। जिसका सीधा असर भाषा से सम्बन्धित बाजार पर पड़ा। लेकिन कहते हैं कि बाजार अपने लिए ग्राहक ढ़ूंढ़ ही लेता है। इसीलिए एक लम्बे समयान्तराल के बाद भोजपुरी गीतों से जुड़े कलाकारों के बीच सुगबुगाहट षुरु हुई वर्ष 1995 के आस पास, जब प्रसिद्ध म्यूजिक कम्पनी टी सीरीज ने भोजपुरी लोकगीतों में रुचि लेनी षुरु की। अपनी नई रणनीति के तहत म्यूजिक कम्पनियों ने गढ़वाली, कुमाउनी, बांग्ला, मराठी, हरियाणवी सहित भोजपुरी गानों के श्रोता वर्ग को अपनी तरफ लाने की पहल की जिसका परिणाम रहा मनोज तिवारी, भरत शर्मा व्यास, सुनील छैला बिहारी, कल्पना, गुडडू रंगीला, निरहुवा रिक्सावाला, देवी , पवन सिंह जैसे कलाकारों का उदय।
और इसी के साथ शुरुआत हुई एक ऐसे दौर की जिसमें हर नया एलबम भोजपुरी भाषा के विकास और प्रसिद्धि की एक नई इबारत लिखता चला गया। भोजपुरी सिर्फ बोली न रहकर एक ऐसा माध्यम बनती गई जिसने उन्मुक्त आर्थिक विकास के वैश्विक दौर में थोड़ पीछे छूट गये लोगों को अपनी बात कहने का प्लेटफोर्म उपलब्ध कराया। यह प्लेटफोर्म कई मायनों में बड़ा मददगार साबित हुआ। खुले बाजार की नीति की वजह से जो विदेषी पैसा आया उसने अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया था। शहरी क्षेत्र हवा की गति से प्रगति कर रहे थे और उसी के साथ विकसित हो रही थी एक ऐसी परम्परा जिसमें आम लोगों पर इस बात का दबाव था कि वो पष्चिम के मौडल के हिसाब से अपने आप को ढ़ालें लेकिन संगीत कम्पनियों के माध्यम से मुहैया हुए अवसरों ने लोक कलाकारों को इस दौर में भी अपनी बात रखने का विश्वास दिया।
कभी कायस्थों की कही गई और कैथी लिपि में लिखी गई इस भाषा ने समय की मांग को पहचानते हुए देवनीगरी लिपि को अपना लिया। हांलाकि भोजपुरी का कोई वृहद साहित्यिक इतिहास नहीं है और इस मामले में इसे एक अन्य लोकप्रिय पूर्वी बोली मैथिली के सामने शर्मिदगी भी झेलनी पड़ी है परन्तु फिर भी जो साहित्य रचा गया उसे किसी भी मायने में कम करके नही आंका जा सकता। कबीर, धर्मदास, धरनीदास, दरियादास, लक्ष्मीसखी से लेकर रामनरेष त्रिपाठी, कृश्णानंद उपाध्याय, दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह एवं डब्लू जी आर्चर तक भोजपुरी के सेवकों की एक लंबी लिस्ट है। इतना ही नहीं बटोहिया लिखने वाले रघुवीर नारायण और देश विदेश में ख्याति प्राप्त नाटक बिदेसिया के जनक भिखारी ठाकुर जैसे लेखकों ने भोजपुरी बोली को समृृद्ध करने में
मगर इतिहास और वर्तमान में जमीन आसमान का फर्क होता है और षायद इसीलिए भुला दी गई चीजों को इतिहास कहते हैं। वर्तमान समय में भोजपुरी भाषा में मनोरंजन की मांग लगातार बढ़ रही है विशेषकर संगीत और फिल्मों के माध्यम से। हवा के इस रुख का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष दो हजार पांच में आई तीस लाख की लागत से बनी फिल्म ससुरा बड़ा पैसा वाला ने
तकरीबन बीस करोड़ से भी अधिक का व्यवसाय किया। इतना ही नहीं, समझा जाता है कि आज भोजपुरी फिल्मों का बाजार 800 करोड़ रुपयों से भी उपर पहुंच चुका है। एक अनुमान के मुताबिक इस बाजार के सन 2011 तक 900 करोड़ पार कर जाने की उम्मीद है।
लेकिन इस बढ़ते बाजार की कीमत भी चुकानी पड़ रही है। खूब बिकाउ प्रोडक्ट बनाने के चक्कर में सभ्यता और संस्कृति को ताक पर रख दिया गया और अश्लीलता को हवा दी गई। जिसका सीधा असर लोकगीतों पर पड़ा। कभी सिनेमाई गीतों के लिए प्रेरणा स्रोत रहे इन गीतों के लिए सिनेमा ही प्रेरणा बन गया। जिसका परिणाम रहे नये जमाने के भड़काउ गीत।
जैसे ही लोकसंस्कृति से जुड़ी चीजों में ग्लैमर का तड़का लगा, वैसे ही इसमें नये नये उपभेक्ता ढ़ूढ़ने की ताकत बढ़ती गई। कुछ ही समय में ग्लैमर का पुट अपनी आखिरी हदें छूने लगा। अन्तिम सीमा तक पहुंचाने में उन्हीं संगीत कम्पनियों का हाथ रहा जिन्होंने कभी लोकगीतों को बचाने के नाम पर भोजपुरी का दामन पकड़ा था। जनता की चाहत के पुराने, घिसे पिटे तर्क के सहारे जनता की पसंद तय की गई और इसी पसंद के सहारे कभी जनभाषा के रुप में जानी गई भोजपुरी सिर्फ अपने बी ग्रेड गानों और फिल्मों के लिए
जानी जाने लगी। बदलाव की यह आंधी इतनी तेजी से चली कि साधारण जनता को कुछ भी सोच परख कर चुनने का मौका ही नहीं मिल सका।
भोजपुरी भाषा को न जानने वाले लोगों के लिए इस भाषा का विस्तार क्षेत्र एक तरह की तीसरी दुनिया ही थी, जिसकी वजह से उन्होंने कभी इसकी रसातल में जाने की प्रक्रिया पर कोई ध्यान नहीं दिया। वैसे भी कमोबेष समस्त भारत वर्ष में अलग अलग भाषाओं पर इस तरह के प्रयोग चल रहे थे। जिसमें किसी भी भाषा को प्रस्तुत करने वाली सामग्री के स्तरहीन होते चले जाने का तत्काल ज्ञान नहीं हो पाया। इस बोेली से सरोकार रखने वाले लोगों को भी शुरुआत में यह अंदाजा नहीं लग पाया, कि सबकुछ इतनी रफतार से घट जायेगा। कभी डा राजेन्द्र प्रसाद, कैफी आजमी, बिस्मिल्ला खान और जेपी के नाम से जाने जाने वाला भेाजपुरी क्षेत्र निरहुआ रिक्सावाला की धुनों पर नाच रहा था और साथ ही नाच रही थी बाजारु व्यावसायिकता।
समय समय पर भोजपुरी संस्कृति के ही अश्लील होने बात भी कही गई । माना गया कि मनोंरंजन के माध्यम यही दिखाते हैं जो समाज में घटित हो रहा होता है तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाये कि अष्लीलता भोजपुरी बोली में हमेशा से बसी हुई थी और फिल्मी तथा निजी एलबमों में उसका आना महज एक साधारण बात थी जिसे देर सवेर होना ही था।
भोजपुरी गीत एक क्षेत्रा विशेष तक सिमट कर रहे हों, ऐसा भी नहीं था बल्कि सच्चाई तो यह ह,ै कि मुम्बईया फिल्मों में भी इसका जमकर प्रयोग हुआ है। नया दौर , सकीना जैसी फिल्मों से लेकर मालामाल वीकली तक हिन्दी फिल्मों के सफर में कई ऐसे पल आये जब ग्रामीण दृष्यों को फिल्माने के लिए भोजपुरी का सहारा लिया गया। तर्क किया जा सकता है, कि इन फिल्मों में भोजपुरी अवधी या खड़ी बोेली के साथ मिश्रित थी, किन्तु फिर भी इसका प्रयोग तो हुआ ही। फिल्मी गीतों की भी एक लम्बी श्रृंखला रही जिसमें सारा दारोमदार भोजपुरी पर ही रहा।
मगर इन इक्का दुक्का गीतों से भोजपुरी में लिखे और गाये जाने वाले गीतों की कुल छवि में कोई बदलाव नही आया। इस पुरातन छवि की जड़ें राजनीति में भी निहित थीं। राजनीतिक रुप से अति सजग बक्सर समेत सम्पूर्ण भोजपुर क्षेत्र, वक्त के हिसाब से कई बड़े राजनैतिक आन्दोलनों का गवाह बना, फिर चाहे वह लोहिया का समाजवाद हो, या सान्याल मजूमदार का नक्सलवाद। बिल्कुल विपरीत प्रकार की राजनीतिक धाराओं की प्रयोग भूमि होने के कारण, भोजपुरी को अच्छे और बुरे दोनों तरह के परिणाम मिले। अच्छा यह रहा, कि भोजपुरी भाषा कभी एक धारा की गुलाम नहीं रही, और बुरा यह हुआ कि कभी एक विशेष प्रकार की संस्कृति विकसित नहीं हो पाई। इसका सीधा असर पड़ा लोकगायकों पर, जिनके पास किसी एक धारा से जुड़कर अपनी बात कहने की प्रेरणा नहीं रही और शायद इसी लिये वे हरा उस दिशा की ओर आसानी से मुड़ गये जहां से आने वाली धाराएं तेज थीं। गोरख पांडेय और शत्रुघ्न सिंह जैसे कुछ जनवादी कवियों को छोड़ दिया जाये तो कभी किसी विचारधारा के प्रति विशेष आग्रह नहीं दिखा। अब जब बदलते दौर ने पूंजीवाद का हाथ पकड़ा है तो भोजपुरी कलाकारों ने भी तत्काल कमाई की इसी राह पर अपने कदम बढ़ा दिये हैं। जो पूरी दुनिया में हिट है वो भोजपुरी में भी हिट है।
इन्सटैंट हिट होने की इसी क्षमता को पहचान कर कई बड़े कलाकार भी नई भोजपुरी की इस दुनिया में अपने कदम जमाने की सोचने लगे हैं। मिथुन चक्रवर्ती, अजय देवगन, गोविंदा, जैकी स्रौफ समेत पिछली सदी के महानायक अमिताभ बच्चन तक ने भोजपुरी फिल्मों में अपनी पारी षुरु कर दी है। नायिकाओं की बात की जाय, तो इन फिल्मों की सुपर स्टार नगमा समेत हेमा मालिनी, ष्वेता तिवारी, सम्भावना सेठ आदि ने हिन्दी के साथ इनमें भी काम करना स्वीकार किया है। हिन्दी और दक्षिण की फिल्म इन्डस्ट्री के सामने अपने आप को खड़ा करने की कोषिष में लगी भोजपुरी इन्टरटेनमेंट इन्डस्ट्री ने एक तरह से संघर्षरत कलाकारेां को पनाह दी है। लेकिन पनाह देने के क्रम में इन कलाकारों के संग आई मुम्बईया फिल्मों की फूहड़ता को भी जगह मिल गई है।
ब्ेाशक भोजपुरी से सम्बन्धित इस बाजार ने लोगों के लिए नये अवसर उपलब्ध कराये हैं और आज इसी वजह से भोजपुरी कम से कम चर्चा का विशय बन पाई है किन्तु इस चर्चा के तमाम मायने तब खोखले साबित हो जाते ह,ैं जब इस पर अश्लीलता और फूहड़ता को बढ़ावा देने का आरोप लगता है। यह बात एक स्तर पर सही लगती है, कि बाजार सिर्फ उन्हीं वस्तुओं को आगे बढ़ने का मौका देता है, जिनके साथ नये खरीददार जुड़ने की सम्भावना होती है और ऐसे में भोजपुरी गीतों के और भी अश्लील होने की पूरी गुंजाईष है। लेकिन यह इस भाषा से जुड़े कलाकारों और रसिकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वो बिकने के फेर में अपनी संास्कृतिक धरोहर का बर्बाद होने से बचायें। ऐसा कतई नहीं है, कि अच्छे उत्पादों को बाजार नही मिलता। उदाहरण के लिए पद्म श्री शारदा सिन्हा द्वारा गाये गये छट पर्व के गीतों को लिया जा सकता है, जिनकी चमक सालों बाद भी फीकी नहीं पड़ी है।
बाजार को लुभाने वाली वस्तु गुणवत्ता के स्तर पर भी बेहतरीन हो, इसके लिए काफी मेहनत की आवश्यकता होती है। इतनी मेहनत सबके बस की बात नही होती। लकिन फिर लोक कलाकार भी तो साधारण मनुष्य नहीं होते। आईये आशा करें कि भोजपुरी गीतों में अश्लीलता कम होगी और साफ स्वच्छ गीतों के निर्माण में गति आयेगी।
शोधपूर्ण पोस्ट। लगता है काफी मेहनत किया है आपने। संदर्भ के लिए अच्छा है।
accha likha hai. mahatwapurn hai.
बहुत अच्छा आलेख .लोक सस्क्र्ती पर भी बाजारवाद हावी |
vakai nai soch paida kari hai apne..all bhojpuriyas must read and understand
रवीश जी के कॉलम के ही मार्फत आपके ब्लॉग पर आया. निश्चत रूप से आपका यह लेख शोधपरक और तथ्यपूर्ण है. लेकिन इसके साथ भी वही विडम्बना हो गई है जो तथाकथित भोजपुरी संगीत के साथ है.
पहली तो बात यह कि आपने भोजपुरी संगीत की गौरवगाथा को केवल फिल्मी संगीत से फिल्मी संगीत तक ही सीमित कर दिया है. वास्तव में ऐसा है नहीं. भोजपुरी संगीत का इतिहास क़रीब 8-900 साल पुराना है. भारतीय उपशास्त्रीय संगीत की संपदा का अधिकांश अभी भी भोजपुरी में ही है. इसकी अपनी ऐतिहासिक-भौगोलिक वजहें हैं. इन पर ग़ौर करने की ज़रूरत है.
अब भोजपुरी के नाम पर जो बेहूदे गाने चल रहे हैं, उनका न तो व्याकरण भोजपुरी है और न शब्दावली ही. अगर ग़ौर करें तो आप ऐसा पाएंगे. फिर भी इन्हें भोजपुरी कहा कैसे जा रहा है, यह बात समझनी मुश्किल है. यह बात ध्यान रखी जानी चाहिए कि इन गानों को न तो लिखने वाले भोजपुरी क्षेत्रों के हैं और न इनकी धुनें बनाने वाले. ये भोजपुरी क्षेत्रों के आसपास के लोग हैं. जो भोजपुरी को दूर से जानते हैं. वैसे ही जैसे भोजपुरी के लोग अवधी या मगही को जानते हैं.
बेहतर होगा कि आप इन मुद्दों पर थोड़ी और गंभीरता से इत्मीनान से कार्य करें. और अगली कड़ियों में इन मुद्दों को भी उठाएं.