बहसतलब का आज दूसरा दिन था। आज बात होनी थी हिन्दी सिनेमा और बाजार पर। कार्यक्रम के संचालन की बागडोर अविनाश ने खुद कुछ कहने के बाद वरुण ग्रोवर को दे दी। वरुण ग्रोवर ने शुरुआत की और कहा कि हिन्दी सिनेमा का व्यापार बड़ा एब्सटेक्ट किस्म का है। यहां लोग फिल्में बेच तो रहे हैं पर रिस्क नहीं ले रहे। ये लोग जाहिर तौर पे निर्माता हैं। उनके कंटेंट में प्रयोग दिखे न दिखे लेकिन पीआर में जबरदस्त प्रयोग हो रहे हैं। फिल्म की पब्लिसिटी के लिये फिल्म की हिरोईन मसलन मनीसा काईराला के मर्डर की अफवाह तक फैलाने से गुरेज नहीं किया जाता। मल्टीप्लेक्स छोटी यानी कम बजट की फिल्मों का दुश्मन है। ये एक तरह का अलग देश है। वहां महंगाई का अपना अलग अर्थशाष्त्र है। फिल्मों के लिये एक खास तरह का माईन्डसेट और आडंबर पनप रहा है। और इस वजह से पाईरेसी भी एक मीडियम बन गया है।
अब तक 80 से ज्यादा वृत्तचित्र बना चुके अनवर जमाल कहते हैं कि बाविुड शब्द को लेकर मेरी पहली आपत्ति है। सिनेमा का सम्बंध अगर ओरिजनैलिटी से है तो उसे बालिवुड जैसे किसी चोले की जरुरत ही नहीं है। अगर सिनेमा को उत्तर भारत के समाज से जोड़कर देखें तो उसके बाजार को समझा जा सकता है। डोक्यूमेंटी फिल्मों में भी स्तर की बात करें तो कम से कम सवा दो हजार फिल्में ऐसी हैं जिन्हें मल्टीप्लेक्स में दिखाया जा सकता है। साल की डेढ़ दो सौ फिक्शन फिल्में ऐसी बनती हैं जिन्हें कोई आमिरखान नहीं मिलता और प्रमोशन के अभाव में वो चर्चा में आ नहीं पाती। समस्या ये है कि सिनेमा अब पैशन की जगह पैसे से ज्यादा जुड़ गया है। भारतीय सिनेमा के फाईनेंसिंग मौडल की बात करें तो मुम्बई की फिल्म इन्डस्टी विश्व के डवलप्मेंट सेक्टर में दश्मलव से भी कम हिस्सा रखती है। मेरा अपना फंड जुटाने का तरीका ये है कि मैं मुददे से जुड़े हुए विशयों पर काम कर रहे एनजीओ से फंड जेनरेट करता हूं। अगर बाजार को अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो उसमें एकरुपता जरुरी है। लेकिन इसके विपरीत फिल्मों का बाजार इसलिये कम है क्योंकि उनका नेरेटिव केवल मध्यवर्ग पर केन्द्रित है।
संजय झा मस्तान ने बताया कि मेरी दो फिल्मों को लेकर मेरे अनुभव अलग अलग हैं। जहां स्टिंग्स को लेकर मेरा बाजार का अनुभव अच्छा नहीं रहा वहीं मुम्बई चकाचक को रिलीज करने में मुझे अब तक इन्तजार ही करना पड़ रहा है। उसे कभी राजनीतिक एंगल देकर रोका गया तो कभी उसके नाम को लेकर कहा गया कि वो मुम्बई से बाहर नहीं चलेगी। ऐसे में हर फिल्म को बाजार में लाने की अपनी अलग कहानी निकलकर आती है। इसका कोई निश्चित आर्थिक माडल नहीं है लेकिन इतना जरुर है िकइस तरह बाजार से संघर्ष करना आसान नहीं है।
अजय ब्रहमात्मज ने संजय द्वारा दबे दबे स्वरों में कही जा रही कहानी को बिल्कुल खोलकर सामने रख दिया। उन्होंने सच बताते हुए कहा कि मुम्बई चकाचक के पीछे की कहानी ये है कि उसे निर्माता ने एक मल्टीनेश्नल कम्पनी को बेच दिया। लेकिन तभी इस कम्पनी को महाराष्टा सरकार का एक बड़ा प्रोजेक्ट मिल गया जहां से करोड़ों रुपये निर्माता को मिल रहे थे। ऐसे में यदि वो फिल्म को रिलीज करती तो सम्भव था कि उसका रानैतिक एंगल समस्याएं खड़ी करता। जो सरकार को गवारा नहीं होता। ऐसे में कम्पनी ने किया ये कि उस फिल्म को वापस निर्माता को दे दिया । निर्माता ने निर्देशक से कहा कि आप ही इसे रखो और रिलीज करो। इस तरह कहानी ये है कि निर्देशक की मेहनत की बाजार में कोई कद्र नहीं है। लेकिन बाजार से भागने पर काम नहीं चलेगा। उसे समझना होगा। आचकल एक बच्चा फिल्म के बारे में सबसे पहले ये सोचता है कि ये चलेगी कि नहीं। यही सोच दर्शकों से लेकर निर्माता तक पैठ रखती है। जबकि कम से कम दर्शकों को इस बात से मतलब नहीं होना चाहिये कि फिल्म चलेगी कि नहीं। ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उन्हें फिल्म कैसी लगी। आजका पूरा फिल्म कल्चर कुद जेबों में सिमटकर रह गया है। यही जेबे निर्धारण कर रही हैं कि फिल्म का क्या होना चाहिये। लेकिन फिल्म के बाजार को समझना है तो उसे भेदना होगा। ये बाजार आपको अपमानित करेगा। आपको दुर्दुरायेगा। जिसे इस क्षेत्र में आना है उसे ये शुरुआती हकीकत समझनी ही होगी। दरअसल लोगों में विरोध करने की प्रवृत्ति नहीं है। अगर फिल्म आपको पसंद नहीं आती तो क्यों उसका बायकौट नहीं करते। यदि ये बर्ताव करना लोगों ने सीख लिया तो उन्हें वही दिखाया जायेगा जो वो देखना चाीते हैं। पूरा उत्तर भारत अपनी आवाज को लेकर सिनेमा में क्यों दखल नहीं देता। क्यों सिनेमा को दक्षिण भारतीय दुनिया से खींचकर उत्तर भारत की तरफ नहीं मोड़ता। क्यों ऐसा है कि देश में 800 से कम मल्टीप्लेक्सों में बैठकर फिल्में देखने वाले 16 लाख लोगों के आधार पर ये बात निर्धारित हो जाती है कि 100 करोड़ से ज्यादा लोगों को क्या दिखाया जाये ।हमें ये बातें एक दर्शक होने के नाते समझनी होंगी और इन पर सवाल करने होंगे।
जयदीप ने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि मेरी अपनी फिल्म जो कि 95 लाख रुपये में बनी, उसकी एडिटिंग भी नहीं हुई थी कि निर्माता ने उसे 1.5 करोड़ रुपये में बेच दिया था। सेटेलाईट राईट पर आने वाला खर्च वसूल हो जाने की शर्त पर निर्माता फिल्मों को रिलीज होने से पहले ही बेच देते हैं। क्योंकि वो फिल्म से अपना लाभंाश कमा चुके होते हैं तो ऐसे में उनका फिल्म से इटेस्ट लूज हो जाता है। हमारी इन्डस्टी में फिल्मों को लेकर एक बज बन जता है। हल्ला रिलीज होने के तुरंत बाद उसपर काफी नकारात्मक समीक्षाएं समाचार पत्रों ने छापी। कहा कि फिल्म अच्छी नहीं है। हैरानी की बात ये थी कि अलग अलग समीक्षक द्वारा लिखे गयी समीक्षओं की भाषा में कई समानताएं थी। लेकिन कुछ दिनों बाद जब अनुराग ने इस फिल्म की सकारात्मक समीक्षा लिखी तो उसके बाद कहीं कोई नकारात्मक समीक्षा छपी ही नहीं।
अनुराग कश्यप ने फिल्मों के बाजार पर अपनी बात रखते हुए कहा कि दक्षिण भारतीय फिल्मों का बाजार इसलिये इतना बड़ा है क्योंकि वे अपनी कहानियों पर फिल्में बनाते हैं और वहां के लोग उसे पसंद करते हैं। हमें अपनी फिल्म देखने की आदतें बदलने की जरुरत है। हमें अपनी फिल्में रिलीज करने के लिये एक सही मौडल तलाशने की जरुरत है। लोग फिल्मों के लिये बड़े बड़े डिस्टिब्यूटर तलाशते हैं लेकिन मैने खुद लोगों के पास जा जाकर अपनी फिल्में बांटी हैं। हमें अपनी फिल्म को स्क्रीन करने के लिये खुद भी प्रयास करने की जरुरत है। हमारी फिल्में विदेशों में इसलिये कारोबार नहीं करती क्योंकि वहां के बाजार और हमारे बीच कुछ बिचौलिये हैं जिन्हें केवल मुनाफे से मतलब है इस बात से नहीं कि ज्यादा से ज्यादा लोग फिल्म देखें। मेरा बिजनेस मौडल ये है कि हर देश में मेरे अपने लोग मौजूद हैं जो फिल्म की पब्लिसिटी करते हैं। मेरे सम्पर्क हर किसी से अच्छे हैं।
आउटलुक की फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी ने इस बात को लेकर तल्खी जताई कि आजकल फिल्मों की रिलीज से पहले व्यक्तिगत स्तर पर स्क्रीनिंग होने लगी है। निर्माता निर्देशक और सिनेमाहाल के मालिक उन लोगों को व्यक्तिगत तौर पे फिल्में दिखाते हैं जहां से अच्छी समीक्षाओं की गारंटी मिले। ये एक तरह की राजनीति है जो फिल्म समीक्षकों की ईमानदारी पे सवाल खड़े करती है। कौर्पोरेटाईजेशन और मल्टीप्लेक्साईजेशन फिल्मों का सबसे बड़ा दुश्मन है।
दूसरे सत्र में सिनेमा के भविष्य को लेकर बातें रखी गई। सत्र की शुरुआत करते हुए रविकान्त ने कहा वैकल्पिकता को किसी परिभाषा में नहीं गढ़ा जा सकता। हर रचनात्मक चीज वैकल्पिक है। मुख्यधारा के सिनेमा में भी एक वैकल्पिक रचनात्मकता है। मुझे मसाला फिल्मों में भी वैकल्पिकता नजर आती है। फौर्मूला फिल्में भी दरअसल फौर्मूले को तोड़कर ही बनायी जाती हैं। इन फिल्मों हर व्यक्ति अपने लिये एक कोना तलाश लेता है। बल्कि इन्टरनेट जैसी तकनीक ने इसे कोने से निकालकर ग्लोबल कर दिया है। रत्नाकर त्रिपाठी ने अपने एक लेख में कहा है कि भोजपुरी सिनेमा भी अब ग्लोबल हो रहा है। वो अपना सीमित संसार छोड़कर विस्तार पा रहा है। और इसमें अभी और संवेदनशीलता पैदा होगी। वास्तव में वैकल्पिकता की उर्जा हर तरह के सिनेमा को देखने और परखने से ही प्राप्त की जा सकती है। रचनात्मकता के कई धरातल हैं इसीलिये किसी भी फिल्म को गैर रचनात्मक कहके सिनेमा ने तमाम संघर्ष करके जो प्रयोग किये हैं उन्हें हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। हम ये पहले से ही तय करने लगते हैं कि लोगों को क्या दिखाया जाना चाहिये ।हम सोचते हैं कि जो हम दिखा रहे हैं उससे दर्शक में बदलाव होगा लेकिन इस तरह सोचकर हम दर्शक के अपने विवेक को नकार रहे होते हैं।
प्रवेश भारद्वाज ने कम बजट की फिल्मों को लेकर कहा कि जैसा साहित्य में भी होता है कि किसी लेखक की किताब 1100 की संख्या में छपती है तो किसी की 40000 की संख्या में। यही सिनेमा में भी होता है। पर इससे कम संख्या में छपने वाले का साहित्य निचले दर्जे का नहीं हो जाता। ऐसे ही हमें कम बजट वाली फिल्मों को सम्मान की नजर से देखना चाहिये।
जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने कहा कि हमारे समय में सिनेमा देखने जाना खराब होने की निशानी माना जाता था। पर अब ऐसा नही है। आज हर चीज को कामेडी और मसाले में ढ़ालने के प्रयास फिल्मों में होने लगे हैं। यहां तक कि बलात्कार तक को कामेडी बनाकर दिखा दिया जाता है। और इसे बाजार कहा जाता है। ये हालात खतरनाक हैं। सार्थक सिनेमा के अवकाश की तलाश मुख्य धारा में की जानी चाहिये। आज के सिनेमा में हिन्दी भ्रष्ट हो रही है। भाषा एक जिम्मेदारी की मांग भी करती है। इस बात का ध्यान फिल्मों में रखा जाना चाहिये। पिकासो ने एकबार कहा था कि अपनी नकल करने से दूसरे की नकल करना बेहतर है। हमारी फिल्मों में कंटेंट के स्तर पर विविधता नहीं आ रही। तकनीकें इतनी प्रभावी हो गई हैं कि कला सिनेमा से गायब हो रही दिखती है। अच्छी फिल्में सोचने का मौका देती हैं। ठहरने की जगह देती हैं। आज सम्पादन के जरिये फिल्मों को ऐसा बना दिया जाता है कि वो सोचने का मौका ही नहीं देती।
विनोद अनुपम ने कहा कि सिनेमा के लिये विकल्प नहीं तलाशा जा सकता। जैसे देश की एक राजधानी है वैसे ही फिल्मों का एक केन्द्र मुम्बई है। इसे चुनौती दिये जाने की कोई जरुरत ही नहीं है। सिनेमा के छोटे केन्द्र इसलिये विकसित नहीं हो रहे कि उनका कोई बाजार ही नहीं है। भोजपुरी फिल्में बिहार से नहीं बल्कि मुम्बई से बन रही हैं। लेकिन उनका कंटेंट बिहार से ही है। इस भ्रम में रहना ठीक नहीं है कि भोजपुरी का कोई बड़ा बाजार है। ये वहां के तीन मुख्य कलाकरों द्वारा फैलाया जा रहा भ्रम है।
अनवर जमाल ने कहा कि हमारे देश में पिछले दशकों में थियेटर की संख्या में पतन हुआ है। 90 के दशक में देश में 19 हजार के आसपास थियेटर हुआ करते थे। लेकिन आज महज 5 6 हजार थियेटर ही पूरे देश में हैं। अगर हमें सिनेमा में विकल्पों की तलाश करनी है तो वो हमारे सामाजिक और राजनैतिक जुड़ाव से निकल कर आयेंगे। वैकल्पिक उर्जा उस परिवेश से आयेगी जिससे हम जुड़े हुए हैं।
चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने चुटकी लेते हुए कहा कि मार्केटिंग की सच्चाई कुछ और है। वहां महत्वाकांक्षाओं के घोड़े दौड़ रहे हैं और यहां अनुभवों के गधे दौड़ रहे हैं।
अरविन्द ने हस्तक्ष्ेाप के सिलसिले को शुरु करते हुए कहा कि सार्थक सिनेमा के दर्शक बिखरे हुए हैं। जब तक उनमें नेटवर्किंग नहीं होगी तब तक चीजें नहीं सुधरने वाली। उन्होंने सार्थक सिनेमा और कम बजट के सिनेमा के लिये उम्मीद जगाते हुए इसको बढ़ावा देने के कुछ तरीके सुझाये। उन्होने कहा कि सबसे पहले हमें अपनी फिल्म 35 एमएम पर बनाने और बड़े हाल्स में स्क्रीनिंग करने की जिद छोड़नी होगी। डिजिटन मीडिया ने फिल्म निर्माण को सस्ता बनाया है। आजकल सेटेलाईट के जरिये स्क्रीनिंग सस्ते में हो सकती है। फिल्म के डिस्टिब्यूशन के लिये कुछ वैबसाईटस हैं जो डीवीडी बेचने काम करती हैं और आपको सेयर देती हैं। उन्होंने कहा कि उत्तर भारत को छोड़कर दक्षिण भारतीय प्रदेशों में राज्य सरकार की ओर से फिल्म लैब खोले गये हैं। इन्हें राज्य सरकार फंड करती है। यहां भी ऐसा होना चाहिये।
विनीत ने कुछ सवाल खड़े करते हुए कहा कि असल सवाल ये है कि विकल्प को किसी इवोल्यूशन की तरह देखना चाहिये या इसे एक अलग स्टीम माना जाना चाहिये। क्या केवल सिनेमा को सस्ता बना देने से ही विकल्प तैयार हो जायेंगे। असली मुददा है जागरुकता के भाव का खत्म हो जाना। विकल्प इस बात से पैदा होते हैं कि समसामयिक हालातों को लेकर आप कितना रिएक्ट करते हैं। आधुनिकता के घिसे पिटे मुददों को सिनेमा पर लादने की कोशिश नहीं होनी चाहिये। सिनेमा कोई वैक्यूम से पैदा होने वाली चीज नहीं है। ये कोई संतई का काम भी नहीं है। हमें सिनेमा को देखने के अपने कारण तलाशने चाहिये। आजकल किसी भी पौपुलर चीज का विरोध करना एक फैशन बनता जा रहा है। सिनेमा हमारे टैंशन से उपजना चाहिये। हमें ये तय करना चाहिये कि हम किसके लिये विकल्प चाहते हैं। अपने लिये या दूसरे के लिये। सिनेमा को सोच और टैंशन कस्तर पर रिसीव करना जरुरी है।
अंत में अविनाश ने कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिये सभी आगन्तुकों सहित मुख्य जनतंत्र के सम्पादक समरेन्द्र और यात्रा बुक्स के सत्यनानंद निरुपम का आभार व्यक्त किया। कार्यम का समापन सत्यानंद निरुपम ने किया।