ये साली…. अच्छी थी

(Last Updated On: February 9, 2011)
इन्टयूशन था कि साली अच्छी होगी। कई इन्टयूशन सच निकलते हैं। इस बार यही हुआ। ये साली जिन्दगी कुलमिलाकर एक अच्छी भली फिल्म थी। इसे देखते हुए ऐसा नहीं लगा कि कुछ रेगुलर देख रहे हैं। गन थी। धांय धांय थी। गेंग्स्टर्स थे। पर अभी रामू मार्का किसी डाईरेक्टर की जगह सुधीर मिश्रा थे। इसीलिये फिल्म थोड़ी अलग बन पड़ी। थोड़ी स्टाईलाईज्ड सी। अच्छी एडिटिंग निहायत रफ और रा कहे जा सकने वाले कैची डायलौग्स, इरफॅान की आम आदमी वाली खास आवाज में नेरेशन और कई परतों में बुना हुआ लेयर्ड सा नेरेटिव स्टाईल। ये सारी बातें फिल्म को आमतौर पर बनाई जाने वाली देसी बौलिवुडमार्का गैंगस्टर फिल्मों से अलग पायदान पर खड़ा करने में कामयाब हो सकी हैं। फिल्म के बारे में कई क्रिटिक्स ने कहा है कि एक अनकौम्प्लिकेटेड सी कहानी को कौम्प्लिकेटेड बनाकर दिखाया गया है जो एक हद तक सच है। फिल्म में कई इन्टरनल लौजिक्स काम करते हैं जिनको समझने के चक्कर में आंखिरी तक फिल्म बांधे रखती है। और जिन्दगी में ज्यादातर चीजें हमें अपनी कौम्प्लिकेटेड फौर्म में ही अच्छी लगती हैं। इससे उनका अपना रहस्य और उनके प्रति उत्सुकता बनी रहती है। एक प्रवाह में बहते चले जाना जब असल जिन्दगी में अच्छा नहीं लगता तो एक फिल्म से भी ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिये। इस लिहाज से कान को उल्टा पकड़ने वाली आलोचकों की बात मेरे हिसाब से खारिज की जा सकती है। फिल्म में दो पैरलल लवस्टोरी एक साथ चलती हैं। दोनो ही प्रेमकहानियों में पैसा और पावर अन्त में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। इन दो अलग अलग प्रेम कहानियों में एक बात कौमन है कि दोनों ही आदमी अपने अपने प्रोफशन के बीच प्यार को ले आते हैं। और जहां प्यार प्रोफेशन के बीच आ जाता है चीजें अपने आप कौम्प्लेक्स हो जाती हैं। जैसा कि असल जिन्दगी में होता भी है। इरफान और चित्रांगदा की प्रेमकहानी जो पूरी तरह एकतरफा है। इरफान चिंत्रांगदा की मदद के लिये सबकुछ छोड़छाड़ के लौट आता है, ये जानते हुए कि उसके पूरे सेक्रिफाईस का हांसिल महज एक प्यार भरा थैंक्स होगा। पर दिल है कि मानता नहीं की तर्ज पर इरफान चिंत्रांगदा को एक ऐसे ट्रैप से बाहर निकालता है जिसमें वो उस दूसरे आदमी की वजह से फंसी है जिससे वो प्यार करती है। वो दूसरा आदमी एक बड़े मंत्री का होने वाला दामाद है जिसकी बेटी से इस दूसरे आदमी की शादी होने वाली है। जाहिराना तौर पर इस दूसरे आदमी के पास ज्यादा पैसा और पावर है। इस आदमी से चित्रांगदा की पहली मुलाकात तब होती है जब जिंत्रागदा उससे पहला झूठ बोलती है कि वो एक मीटिंग में है और उस वक्त इरफान उसे इस दूसरे आदमी की बाहों में पाता है। यहीं तय हो जाता है कि प्यार दरअसल नासमझ होता और खासकर तब जब वो एकतरफा हो तो वो बावड़ी पूछ ही हो जाता है। इरफान अन्त तक चिंत्रांगदा की मदद करता है और अन्त में उसके लिये अपना खून तक बहाता है। पूरी फिल्म में इस एकतरफा प्यार की मासूमियत को महसूस किया जा सकता है। लाल रंग में नहाई एक हरी भरी मासूमियत जिसके जख्म को आंखिर में मलहम मिल ही जाता है।
 दूसरी प्रेमकहानी अरुणोदय की है। इस कहानी में पेंच की वजह बेहद व्यावसायिक है। एक आदमी जो गैंग्स्टर है, जो कब जेल में बंद हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं है, जिसकी बीवी आदिति इस वजह से असुरक्षित महसूस करती है और जिद करती है कि वो खून का खेल छोड़ दे। पर इस खून के खेल में पैसा है और पैसा जीने के लिये जरुरी। आंखिर में निम्नमध्यवर्गीय आम औरत की तरह उसकी प्रेमिका को भी पैसा जरुरी महसूस हो ही जाता है। उसे लगता है कि स्विस बैंक और बांकी जगह रखा पैसा उसका पति ले ही ले तो साला क्या हर्ज है। इन दोनों के बीच लव और लस्ट के बीच की सी कोई चीज है जो उन्हें जोड़े रखती है।
दूसरी ओर सौरभ शुक्ला है जिसके लिये इरफान काम करता है लेकिन जिसे कभी समझ नहीं आता कि इरफान एक लड़की के चक्कर में कैसे अपना पूरा बिजनेस दांव पे लगा सकता है अपना ही लगाता तो ठीक था आंखिर में क्यों उसकी भी मट्टी पलीत कर देता है। पर इस क्यों का जवाब शायद कभी होता ही नहीं।
पूरी फिल्म का यूएसपी उसका नौनलीनियर स्टाईल है। पहले हाफ में कुछ कुछ देर में नये नये कैरेक्टर फिल्म में एंट्री करते हैं। लेकिन हर नये कैरेक्टर को कैप्शन देकर इन्ट्रोडयूस करवाने की जरुरत पड़ती है। हर नयी लोकेशन के बारे में बताने के लिये भी कैप्शन प्रयोग किये गये हैं। और जहां चीजें थोड़ा कमजोर पड़ने लगती हैं वहां नेरेशन से काम चला लिया गया है। दूसरे हाफ में आते आते एक पौईंट पर लगने लगता है कि यहां एक खास तरह की स्पून फीडिंग होने लगी है। फैक्ट्स ओवरफ्लो से होने लगते हैं। ऐसे में लगने लगता है कि फिल्म जो दिखाकर समझाने में सफल नहीं हो पा रही वो कहकर समझाने की कोशिश कर रही है। ये कोशिश कभी कभी नागवार गुजरने लगती है। लेकिन फिल्म के डायलौग इतने कैची हैं कि जैसे ही ओवरफ्लो औफ फैक्ट्स वाली स्थिति आती है, डायलौग आपको गुदगुदाने लगते हैं। इस तरह नयी नयी घटनाओं और तथ्यों के भारीपन को डायलौग्स का सेंस औफ ह्यूमर रिप्लेस सा कर देता है।
फिल्म में खूब सारी गालियां हैं लेकिन केवल गालियांे से एलेर्जी के चक्कर में फिल्म को छोड़ा नहीं जा सकता। फिल्म में जिन लोगों के इर्द गिर्द है वो असल जिन्दगी में भी होते तो ऐसे ही होते। ऐसे में इन गालियों और देसी स्लैंग की वजह से फिल्म को चीप नहीं कहा जा सकता हां उसके कैरेक्टर्स को आप चीप कहेंगे तो ये शायद फिल्म के लिये अच्छी बात ही होगी।
इरफान हमेशा की तरह अपनी एक्टिंग से फिल्म में अलग जगह पर खड़े नज़र आते हैं। लेकिन अरुणोदय उनकी प्रतिभा के आगे बिल्कुल ओवरशैडो नहीं होते। दोनों की ही एक्टिंग सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। सौरभ शुक्ला भी याद रखे जा सकते हैंे। चित्रांगदा बेहद सुन्दर लगी हैं। खासकर अपने ग्रे शेडस में। हल्की सी रोशनी में लिये गये उनके रिएक्शन शौट्स में वो सेड्यूस करने की हद तक खूबसूरत नजर आती हैं। लेकिन उनकी संवाद अदायगी उतनी प्रभावित नहीं करती। कई बार बिल्कुल आर्टिफिशियल सी लगने लगती है। पंकज कपूर फिल्म में पूरी तरह वेस्ट किये गये हैं।
फिल्म की अच्छी बात ये है कि इरफान जब अपनी कहानी कह रहे होते र्हैं तो वो विलाप सी नहीं लगती। ऐसा नहीं लगता कि कोई इमोश्नल ड्रामा चल रहा है। वहां एक सटायर है। जो अपनी आईरनी में भी हंसाता है। शायद इसी वजह से फिल्म एक दिलजले और प्यार में हारे बेबस आदमी की कहानी होने से बच जाती है।
जैसा की आजकल भतेरी फिल्मों के साथ होता है कि हम सोचते कुछ और वो होती कुछ और है लेकिन ये साली जिन्दगी ऐसी नहीं है। अगर सोच के जाएंगे कि कुछ अलग और हटके देखना है तो भले कहानी में कुछ खास नया ना मिले लेकिन कहानी दिखाने के तरीके में कुछ नया जरुर मिल जायेगा।

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