Goa beach

‘यात्री मोड’के नफे नुकसान

Mumbai Diary : 21 (January 2015)

दिल्ली में किये काम के (छोटे-मोटे विलंबित) चैक  मुंबई के पते पर मंगाते हुए लग रहा है कि इन दिनों शहर कपड़ों की तरह बदल रहा हूं…  जनवरी के आते आते दिल्ली और मुंबई के बीच बदलता यही है कि जेकेट से लदे दिन टी-शर्ट से हल्के हो जाते हैं… जैसे सिहराती सर्दी और हल्की सी  हवा वाले गुनगुने दिन दो बच्चों की तरह साथ साथ दौड़ रहे हों.. कभी कोई आगे तो कभी कोई पीछे.. ‘कब आओगे’ या ‘कब जाओगे’ का ठीक ठीक जवाब नहीं है मेरे पास..मैंने कई बार ये  समझने की कोशिश की है कि खिड़कियों और दरवाजों के बाहर शहर जैसा कुछ जो बदल जाता है उससे मौसम के सिवा और क्या क्या बदलता है ?  और मुझे कुछ ख़ास बदलता नहीं दिखता.

शहर बस पते बदलता है.. मिजाज़ तो आपके अन्दर होता है.. खुश रहना, दुखी रहना, व्यस्त रहना, मस्त रहना, उन्त्साहित रहना या फिर पस्त रहना, ये सब शहर के बदलने से नहीं होता इसके लिए रवैया बदलना पड़ता है शायद.. वो जो आपके चार कदम दूर एक लड़की बिना बारिश के भी किसी खुशी में भीग रही है ना, वो किसी दिल्ली या मुंबई का नहीं उसके रवैये का असर है वर्ना चार कदम दूर खड़े आप न जाने किस बात से भीतर ही भीतर कुढ़ रहे हैं.. उसकी हंसी देखके ये जो जलन हो रही है आपको ये आपका अपना मिजाज़ है जिसे मुंबई नहीं बदल सकता.. दिल्ली उसका कुछ नहीं कर सकता.. हमारे खुद के भीतर एक मौसम है जो हमारे मन के इशारे पे बदलता है.. और वो मन वही इशारे करता है जो हम उसे ताजिंदगी सिखाते हैं.. हमारे सिखाने पर वो सीखता चला जाता है.. गम का मौसम, खुशी का मौसम, उदासी का मौसम..  बाहर का चातुर्मास हमारे अन्दर की धूप को गीला नहीं कर सकता…

कई बार लगता है कि मेरा मन भी मेरी ही तरह हमेशा ‘यात्री मोड’ में रहना पसंद करता है.. ‘कल की किसे खबर’ वाले मिजाज़ में.. ऐसी  ज़िन्दगी कब तक चलती रहेगी नहीं पता.. पर इतना तो है कि इस मोड में ज़िदगी मोनोटोनस नहीं रहती … तमाम तरह की असुरक्षाओं के बीच ऊब के लिए जगह नहीं बचती… हर दिन एक नयेपन  के लिए तैयार रहना एक फ्रीलांसर की खूबसूरत नियति है..

अभी कुछ दिन पहले ही गोआ में था. ये गोआ में तीसरी बार का जाना था. पिछली बार तक हुआ यही था कि हमारा सफ़र बागा, अंजुना और केंडूलिन जैसे अपेक्षाकृत ज़्यादा मशहूर बीच तक सीमित रहा था पर इस बार नॉर्थ गोवा के बीच की तरफ रुख किया तो कई नए अनुभव देखने को मिले.. मापुसा से सिलोम होते हुए तकरीबन एक घंटे के सफ़र के बाद मान्द्रिम-अश्विम रोड से होते हुए गोवा के बेहद सुन्दर और शांत बीचों की एक श्रृंखला सी शुरू होती है.. सबसे पहले अश्विम बीच आता है इस कड़ी में.. अश्विम के पास वाटर स्पोर्ट्स के लिए बेसिक ट्रेनिंग देने वाली कुछ जगहें हैं.. ‘वायु’ नाम  की एक ऐसी ही जगह पर आपको आसान से लेकर मुश्किल पानी के खेलों के कई विकल्प मिल जाते हैं.. आप चाहें तो वो आपको ट्रेनर भी मुहैया कराते हैं.. जिसके लिए पैसे वो अलग से ले लेते हैं.. ‘वायु’ में एक सुन्दर सा कैफे है और रहने के लिए छत पर टेंट नुमा इंतजामात हैं.. जहां से आप अपने सामने समुद्र को बहता हुआ देख सकते हैं.. अश्विम में आस-पास कई छोटे छोटे कैफ़े हैं जहां आप अपनी कैफ़ियत के हिसाब से चाय-शाय, बियर-शियर जो पीना चाहें पी सकते हैं और केकड़े से लेकर केक तक जो खाना चाहें खा सकते हैं.. अश्विम बीच के आसपास का खुला और शांत विस्तार शहर के शोरगुल से एक खुशनुमा मुक्ति देता है.. बीच में शैक्स भी लगे हैं,  चाहें तो पड़े पड़े दिन गुजार दें और चाहें तो चलते रहें समुद्री किनारे को अपनी बपौती समझकर.. आपके पैरों तले बिखरी रेत आपकी थकान को गुदगुदी करती रहेगी..

अश्विम से करीब चार किलोमीटर आगे सड़क सड़क चलने पर मान्द्रिम बीच है… ये बीच रशियन सैलानियों का पसंदीदा बीच है.. मान्द्रिम और मोर्जिम को रशियन्स का गढ़ माना जाता है.. इस बीच में जाकर पता चलता है कि उन्मुक्त रहना हमारी देह को कितना सुख देता है.. किसी और की परवाह न करके अपनी खुशियों की गली में निर्वसन होकर चलते रहना और अपने शगल से दोस्ती कर लेना… दूर देश से आये वो लड़के, लड़कियां, आदमी ओरतें, और बच्चे भी हमें सिखा रहे होते हैं कि ये जो झिझक होती है, ये जो संकोच होता है ये हमारी खुशी के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा होता है.. आपकी सभ्यता और संस्कृति ( अगर ऐसी कोई चीज़ समाज के लिए रत्ती भर भी ज़रूरी हो) तो वो इस बात से नहीं झलकती कि आप क्या पहनते हैं बल्कि इस बात से पता लगती है कि सामने वाला जो पहन रहा है (या नहीं भी पहन रहा) उसके लिए आपका रवैया क्या है.. ‘कम कपडे पहनने से हमारी संस्कृति खराब होती है’ जैसे दकियानूसी ख़याल गोवा के समन्दरों में अदृश्य कूड़े की तरह बह रहे होते हैं..

गोवा से लौटते हुए उस टेक्सी वाले ने जो बात कही इससे हमारे देश के रवैये की पोल खुलती है.. उसने कहा कि ये रशियंस हमारे देश में बस तीन चीज़ों के लिए आते हैं.. “शराब, सेक्स और ड्रग्स.. और इन लड़कियों को देखकर हमारे देश वाले भी बिगड़ रहे हैं… दिल्ली वाली लडकियां भी खुद को रशियन समझने लगी हैं… अब फेमिली वाले लोगों के सामने बिकिनी पहनना अच्छी बात थोड़ी है..” लेकिन भई इन रशियंस के साथ जो बित्ते भर के बच्चे यहां आये हैं क्या उन्हें भी शराब, सेक्स और ड्रग्स ही चाहिए.. ? उनके परिवारों की संस्कृति पर उनकी सोच पर, बिकिनी कोई असर नहीं डालती लेकिन इस बित्ते भर के कपड़े को पहनने से हमारी संस्कृति के कपड़े उतर जाते हैं तो ये कैसी संस्कृति है जनाब… ? खैर उन्मुक्तता से ये परहेज हमें ज़िंदगीभर कुढ़ते रहने और अपनी इच्छाओं को मारकर उस ज़िंदगी को जीने को मजबूर करता रहेगा जो दूसरे चाहते हैं कि हम जियें… जिन्हें कुढना है कुढ़ते रहें अपनी बला से.

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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