डेज़ ऑफ़ हैवन ( days of heaven film) उन कमाल की फिल्मों से एक है जिन्हें आप चाहें तो बस उनकी सिनेमेटोग्रेफी के लिए देख सकते हैं। फ़िल्म का हर दूसरा फ्रेम आपको मजबूर कर देता है कि फिल्म को रोककर बस उस फ्रेम में डूब जाया जाये। उसी तरह जैसे पहाड़ों में सर्दियों के मौसम में घूमने निकले हों। और कंपाती ठंड के बीच जहां जहां धूप दिखे वहां वहां रुक जाने का मन हो। इसलिये नही कि ठंड है। इसलिये कि वो धूप गजब प्यारी है।
टैरेंस मलिक की ये फिल्म एक प्यारी सी कहानी है। प्यार भरे कुछ पलों पर जिन्हें एक युगल अपनी जीविका के लिये संघर्ष करते जीता है। इस फिल्म की कलात्मक छवियां एक अजीब से आकर्षण के मायालोक में आपकी नजरों को रोक भर देती हैं नजरें रुकती हैं और रुकी रह जाती हैं। कि पता नहीं चलता। फिल्म चल रही है। कि फिल्म रुकी रह गई। कि फिल्म चलती जाती है। दृश्य रुक जाते हैं।
कुछ देर दिमाग के अन्दर कोनों में प्रोसेस होते हैं। तब तक कोई नया दृश्य प्रोसेस होने की कगार पर आ जाता है। माने यहां एक ओर स्क्रीन पर फिल्म के फ्रेम 24 प्रति सेकंड की रफतार से गुजर रहे होते हैं दूसरी ओर दिमाग में यह फिल्म रेट 10 12 15 कितना ही हो सकता है। ये इस बात पर निर्भर करती है कि आपके डूबने और डूबकर वापस आने के बीच के फासले की दार्शनिक दुनिया कितनी लम्बी और गहरी है।
कहानी यह है कि शिकागो का एक प्रेमी युगल बिल और ऐबी रोजगार की तलाश में कई मजदूरों के साथ दक्षिणी अमेरिका की ओर सफर पर निकल पड़ता है। एक ट्रेन की छत में सवार ये सभी मजदूर खेतों खलिहानों के बड़े बड़े किसानों से काम मांगने जा रहे हैं। बिल की छोटी बहन भी उनके साथ है।
दरअसल बिल शिकागो की एक स्टील फ़ैक्ट्री का मजदूर है जिसने गलती से अपने सुपरवाईजर की हत्या कर दी है। ये प्रेमी युगल इस बात को अन्य लोगों से छुपा कर रखता । यहां एक कमाल का दृश्य है। नीले आसमान के बीच से काली सी टेन भूरा सा धुआ उड़ाते हुए गुजर जाती है।
ऐसा लगता है जैसे मजदूरों की ये टोली अपने सपनों से मिलने जा रही हो। नीले सपने। काले सपने। भूरे सपने। और कई ऐसे सपने जिनका रंग उन्हें मालूम ही नहीं है। टेन एक बड़े खेत के पास आकर रुकती है। कई मजदूर यहां उतर जाते हैं। कुछ आगे बड़ जाते हैं। प्रमी युगल बिल और ऐबी यहीं उतर जाते हैं। यहां इस जमीन का मालिक एक स्मार्ट युवक है। कुछ समय तक बिल और ऐबी प्यार के कई सुन्दर पल गुजारते यहां रहते है। और जब वो जाने लगते हैं तो फार्म का मालिक उन्हें रोकता है। क्योंकि उसे ऐबी ये प्यार हो जाता है।

ये बात बिल और ऐबी दोनों को पता चलती है। और साथ में ये भी कि फार्म के मालिक को कोई बीमारी है और वो ज्यादा समय तक नहीं बच पायेगा। ये दोनों इस पस्थिति का फायदा उठाने की योजना बनाते है। एबी मालिक के साथ झूठे प्यार का नाटक करती है। और उसके साथ सशादी कर लेती है। अब समय बीतता है लेकिन उसे कुछ नहीं होता। ऐसे में बिल की मनहस्थिति क्या होती है। कैसी ईश्या, कैसा पछतावा और कैसा दुख ऐसे में बिल के मन में उमड़ रहा है, यही फिल्म की मूल कथा है।
टैरेंस मलिक की ये फिल्म उनकी ऑस्कर विनिंग फिल्म है। फिल्म की खास बात है कि इसकी शूटिंग मैजिक आवर्स में हुई है। फिल्म की भाषा में मैजिक आवर्स सुबह, शाम या रात का समय है जब सामान्यतौर पर प्राकृतिक लाईटिंग में शूटिंग नहीं होती। लेकिन फिल्म में ये पूरा समय पूरी तरह प्राकृतिक रुप से नेचुरल लाईट में फिल्माया गया है।
फिल्म के अन्तिम दृश्यों में खेतों में आग लगी हुई है और किसान मजदूर लालटेन लेकर इस आग को बुझा रहे हैं। ये दृश्य लाईटिंग के अनूठे उदाहरण हैं। लालटेन की लाईट फिल्म में प्रोप की तरह भी प्रयोग की गयी है और साथ ही इन्हें लाईट के सोर्स की तरह भी प्रयोग किया गया है। यानी एक तीर से दो शिकार।
मलिक की ये दूसरी ही फिल्म है। लेकिन एक निर्देशक के तौर पर इससे उन्होंने अपने निर्देशन का लोहा मनवा लिया। इस फिल्म को इसकी बेहतरीन सिनेमेटोग्रेफी और नेचुरल साउंड के लिये वर्ड सिनेमा में क्लासिक माना जाता है।
आप खेतों में गेहूं की फसल पर बैठे एक टिड्डे के फसल को काटते दांतों का क्लोजअप देख लीजिये और साथ में उसकी फसल को काटती आवाज सुन लीजिये आप फिल्म की साउंड और सिनेमेटोग्राफी का लोहा मान लेंगे। तय रहा।
चित्रों को देखकर फिल्म देखने का मन हो रहा है। देखता हूँ कि कब वह मौका मिलता है।