हैल्थ इज वैल्थ। इस जुमले का भरपूर प्रयोग आप हम अपने जीवन में भले ही कई बार करते हैं किन्तु स्वास्थ्य सम्बन्धी नीतियों के मामले में सरकार को शायद यह बात समझ नहीं आती। इस बात का अन्दाजा कौमनवैल्थ में किये जा रहे खर्च और कौमन यानी आम आदमी की हैल्थ पर हो रहे मौजूदा खर्च की तुलना करके लगाया जा सकता है। यह बात अब किसी से छिपी नही है कि कौमनवैल्थ खेलों के नाम पर इन कुछ में महीनों में किस तरह पानी के भाव पैसा बहाया गया है। इन खेलों के लिये प्रस्तावित बजट का सत्रह गुना पैसा अब तक इन खेलों की तैयारियों पर खर्च किया जा चुका है। 665 करोड़ रुपये का अनुमानित बजट अब 11994 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर चुका है। यह आंकड़ा तब ज्यादा खलने लगता है जब नजर देश के मौजूदा स्वास्थ्य परिदृश्य पर पड़ती है। योजना आयोग द्वारा जारी की गई आर स्रीनिवासन की एक रिपोर्ट स्वास्थ्य को लेकर सरकार की उपेक्षा का एक स्पष्ठ नमूना पेश करती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आम आदमी के स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च का महज 25 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र यानी सरकार के द्वारा वहन किया जाता है शेष 75 प्रतिशत का भार आम आदमी की जेब पर पड़ता है। यही नहीं वैश्वीकरण के बाद स्वास्थ्य पर सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किये जाने वाले खर्च में आश्चर्यजनक तौर पर कमी आई। 1990 में जहां सकल घरेलू उत्पाद का 1.3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च होता था वहां यह खर्च 1999 तक आते आते 0.9 प्रतिशत रह गया। स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय बजट का मात्र 1.3 प्रतिशत खर्च किया जाता रहा लेकिन राजकीय स्तर पर यह यह खर्च 7 प्रतिशत से घटकर 5.5 प्रतिशत रह गया। स्वास्थ्य पर किया जाने वाला यह खर्च भोर कमेटी की सिफारिशों के बिल्कुल विपरीत साबित हुआ जिसमें कहा गया था कि बजट पर किये जा रहे कुल खर्च का कम से कम 15 प्रतिशत स्वास्थ्य पर केन्द्रित किया जाना चाहिये।
यहां तक कि विश्वस्वास्थ्य संगठन ने तो स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 55 प्रतिशत खर्च किये जाने की सिफारिश की थी। वर्तमान में आम आदमी के स्वास्थ्य पर सरकार सालाना महज 160 रुपये प्रतिव्यक्ति खर्चती है जो कि खुद में चौंकाने वाली बात है। लेकिन इससे भी चिन्ताजनक तथ्य यह है कि स्वास्थ्य पर किये जा रहे कुल खर्च का 85 प्रतिशत उपचार सम्बन्धी कार्यों पर खर्च होता आया है जबकि रोगों को पनपने से रोकने सम्बन्धी कार्याें में महज 15 प्रतिशत।
देशभर में 1 करोड़ चालीस लाख लोगों को टीबी की बीमारी है और हर साल इसकी चपेट में आकर 3 लाख से ज्यादा लोगों की जान चली जाती है। हर साल देशभर में मलेरिया के बीस लाख मामले सामने आते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर दूसरी महिला एनिमिक है। स्वास्थ्य के इस परिदृश्य की मुख्य वजह यह है कि हमारी सरकारों के लिये खेल आम आदमी की सेहत से कई ज्यादा मायने रखता है। खेल के मैदानों के सुधार में करोड़ों खर्चने वाले सत्तासीनों को यह नही दिखाई देता कि देश के लगभग 80 प्रतिशत अस्पतालों में मरीजों के इलाज के लिये चिकित्सक मौजूद नही हैं। देशभर में 1700 लोगों पर केवल एक डौक्टर मौजूद है।
175 देशों की सूचि में सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का न्यूनतम फीसदी खर्चने वालों में से एक भारत 171 वें स्थान पर है। भारत में सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.9 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है जबकि इसके जैसे अन्य विकासशील देशों में औसतन यह प्रतिशत 2.8 है। माने ये कि स्वास्थ्य हमारी सरकार द्वारा तय वरियता में कहीं पीछे है। एक गैरजरुरी मद की तरह।
यदि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में तुलना की जाये तो साफ पता चलता है कि स्वास्थ्य से जुड़ी जो सुविधाएं हैं भी वो मध्य या उच्च वर्ग पर केन्द्रित हैं। देश के शहरी इलाकों के लिय,े जहां हमारी आबादी का कुल 27 प्रतिशत निवास करता ह,ै हमारी कुल स्वास्थ्य सुविधाओं का 75 प्रतिशत समर्पित है जबकि शेष ग्रामीण जनता को बांकी के बचे महज 25 फीसदी संसाधन उपलब्ध हो पाते हैं। शहरी इलाकों में दस हजार सरकारी अस्पताल हैं जबकि ग्रामीण इलाकों में यह संख्या 7 हजार है। इन अस्पतालों में भी शहरी क्षेत्रों में हजार व्यक्तियों के लिये महज 1.7 प्रतिशत बैड उपलब्ध हैं तो ग्रामीण इलाकों प्रति हजार की जनसंख्या पर 0.7 ही बैड मौजूद हैं। जबकि देश के स्वास्थ्य परिदृश्य का दूसरा पहलू ये भी है कि देश में स्वास्थ्य पर्यटन तेजी से विकास कर रहा है। 2006 में इसका बाजार 350 मिलियन डालर का था और कयास लगाये जा रहे हैं कि 2012 आते आते यह उद्योग दो बिलियन डालर तक पहुंच जायेगा। माना जा रहा है इस साल के अन्त तक भारत विश्व के कुल फार्मांस्यूटिकल उतपादन का 15 प्रतिशत उत्पादित करने लगेगा। ये तथ्य संकेत करते हैं कि भारत में स्वास्थ्य को लेकर सम्भावनाओं का जो बड़ा बाजार खड़ा हो रहा है उसमें सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी ना के बराबर है। निजी दवा कम्पनियों और उद्योगपतियों द्वारा बनाये जा रहे इस बाजार से वही लोग लाभान्वित होंगे जिनके पास अच्छी खासी पूंजी खर्चने की हैसियत है। ऐसे में देश का आम तबका स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं के मामले में हमेशा की तरह हासिये पर खड़ा रहेगा। वह उपचार और सुविधाओं के अभाव में अपनी जान गंवाता रहेगा और दूसरी ओर विदेशों से आये सैलानी उच्च गुणवत्ता के भारतीय अस्पतालों में स्वास्थ्य लाभ लिया करेंगे। सवाल ये है कि जब विश्व स्वास्थ्य संगठन अपनी रिपोर्ट में बताता है कि 5 साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण के मामले में भारत सबसे आगे है तो हमारी प्रतिष्ठा दांव पर नहीं लगती और हम अपनी साख बचाने के लिये कोई ठोस प्रयास नहीं करते और दूसरी ओर राष्ट्रमंडल खेल जैसे आयोजनों पर पानी के भाव पैसा बहाकर हम अपनी प्रतिष्ठा बचाने का असफल प्रयास करते मालूम होते हैं।
राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार की तरह ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी घोर भ्रष्टाचार व्याप्त है। विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में खुलासा किया था कि 1993 से 2003 तक भारत में लागू की गई विभिन्न स्वास्थ्य परियोजनाओं में 2500 करोड़ रूपये का घोटाला किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों के लिये आई दवा बाजारों में बिक जाती है और जरुरतमंदों को दवा के लिये महंगी दुकानों की ओर देखना पड़ता है। जो उनमें से ज्यादातर की हैसियत से बाहर होता है। कहने को ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य केन्द्र खोल तो दिये गये हैं पर उनमें जरुरी स्टाफ यहां तक कि कहीं कहीं चिकित्सक तक मौजूद नहीं हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की एक रिपोर्ट की मानें तो देश में 8 प्रतिशत स्वास्थ्य केन्द्रों में एक भी डाक्टर नहीं है। जबकि 39 प्रतिशत अस्पताल बिना लैब टैक्नीशियन और 17 प्रतिशत अस्पताल बिना फार्मासिस्ट के चल रहे हैं। सरकार द्वारा प्रस्तावित पदों में से 59.4 प्रतिशत सर्जन, 45 प्रतिशत गाइनोकोलोजिस्ट और 61.1 प्रतिशत फिजिसियनों के पद रिक्त पड़े हैं।
हमारी सरकार को तय करना चाहिये कि उसके लिये बाहरी दिखावे और साख के भ्रम में रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है या आम आदमी के स्वास्थ्य जैसे गम्भीर मसले पर ध्यान देकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना। उम्मीद की जानी चाहिये कि राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन की खुमारी के बाद ही सही सरकार जनस्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की ओर भी प्रयास करती दिखेगी।
काबिल ऐ तारीफ़ कुल मिला के.