रोम में एक शासक हुआ करता था- नीरो। एक ऐसा शासक जिसके शासनकाल में लगी आग की लपटें आज तक इतिहास के पन्नों को झुलसाती हैं। जब भी उन लपटों की बात होती है तो घोर जनता विरोधी शाषन की तस्वीरें उभरकर सामने आ जाती हैं, कुछ कुछ वही होता है जब भारत में पिछले सालों में हुई किसानों की आत्महत्याओं की बात होती है।
किसानों की आत्महत्या पर बात करती दीपा भाटिया द्वारा निर्देशित डॉक्युमेंट्री फिल्म नीरोज़ गेस्ट (नीरो के मेहमान) एक ऐसी फिल्म जिसे देखकर न केवल गाँवों के लिये सरकारी रवैय्ये की पोल खुलती है बल्कि देश का पेट भरने वाले किसान इस देश में सरकार के लिये क्या अहमियत रखते हैं इसकी तल्ख सच्चाइयां भी देखने को मिलती हैं। ग्रामीण पत्रकारिता के लिये मशहूर मैगसेसे पुरस्कार विजेता पी साईनाथ पर बनी इस फिल्म को देखना गाँवों से सरोकार रखने वाले लोगों के लिये एक कड़वा पर ज़रुरी अनुभव है।
फिल्म पी साइनाथ के एक भाषण से शुरु होती है जिसमें वो कहते हैं “मेरे लिये नीरो कभी कोई मुद्दा नहीं था। मेरे लिये मुख्य मसला था कि नीरो के मेहमान कौन हैं? पूरे साढ़े पांच साल तक किसानों की आत्महत्याओं को कवर करने के बाद आज मेरे पास इस सवाल का जवाब है कि नीरो के वो मेहमान आंखिर थे कौन। मैं समझता हूं कि आपके पास भी वो जवाब है कि नीरो के वो मेहमान आंखिर थे कौन?”
नीरो के इन मेहमानों के बारे में जानना देश के लिये आंखिर क्यों ज़रुरी है पूरी फिल्म यही पड़ताल करती है। फिल्म बताती है कि एक देश जहां 60 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं, वहां 836 मिलियन लोग दिन के 50 सेन्ट से भी कम में अपना जीवन यापन करते हैं और उसी देश की विडम्बना है कि 1997 से अब तक देश में 2 लाख किसानों ने उधार और तनाव की वजह से आत्महत्या कर ली है।फिर भी मेनस्ट्रीम मीडिया मुश्किल से ये सच्चाई दिखाता है।
पी साइनाथ एक ज़रुरी तथ्य पेश करते हैं कि हमारे पास फैशन संवाददाता हैं, हमारे पास ग्लैमर संवाददाता हैं, लेकिन इस देश में एक भी समाचार पत्र नहीं है जिसमें गरीबी को गवर करने के लिये कोई संवाददाता हो। वो बताते हैं, “लैक्मे इंडिया फैशन वीक हो रहा था तो उसे देशभर से 500 से भी ज्यादा संवाददाता कवर कर रहे थे। इस फैशन शो में महिलाएं कॉटन से बने हुए कपड़ों की नुमाईश कर रही थी। लेकिन ठीक उसी समय वहां से एक घंटे की हवाई दूरी पर विदर्भ में जिन आदमी और औरतों ने उस कॉटन को उगाया उनमें से हर दिन 6 लोग आत्महत्या कर रहे थे। और उसे कवर करने के लिये कितने लोग थे ये सब जानते हैं।”
अपनी पत्रकारीय यात्राओं में खींची तस्वीरों में से वो एक जवान लड़के की तस्वीर देखते हुए कहते हैं, “मुझे उसकी आंखें याद हैं, उसने अपने पिता की कमीज पहनी हुई है जिसने आत्महत्या कर ली है। उसकी आंखों में देखा जा सकता है कि वो आंखें सच में डरी हुई हैं कि उसके पास एक ऐसी जिम्मेदारी आ गई है जिसके लिये वो अभी तैययार नहीं है। मैं जब भी उन आखों को याद करता हूं तो याद आता है कि ये एक बच्चा है जो आदमी बनने की कोशिश कर रहा है जिसकी आंखें बताती हैं कि ये कितनी डरी हुई हैं।”
फिल्म के एक हिस्से में साईनाथ बताते हैं, “गरीबी को लेकर देश की जो अप्रोच है वो ये है कि राहुल बजाज लक्जरी प्रोडक्ट्स पर हो रही एक सेमीनार में कहते हैं कि सरकार को गरीबों की मदद करने के लिये अमीरों की मदद करनी होगी। क्योंकि जब देश में अमीरी बड़ेगी तभी गरीबों के हिस्से उसका कुछ हिस्सा आयेगा। अमीरों को इतना अमीर बना दो कि जिस दिन उनकी मेज भर जाएगी तो उससे गरीबों के लिए कुछ तो ज़रुर गिरेगा।”
गाँवों में बिजली कटौती को लेकर भी वो सवाल करते हैं, ”बम्बई में एक घंटे की बिजली कटौती होती है। दो बड़े शहरों में बस दो घंटे की बिजली कटौती होती है और गाँवों में 8 घंटे की बिजली कटौती होती है। देश के इतिहास में पहली बार एक ऐसा जीओ आया जिसने दाह संस्कार गृहों और पोस्टमॉर्टम स्थलों को बिजली कटौती के दायरे से बाहर कर दिया क्योंकि विदर्भ में चैबिसों घंटों हो रही किसानों की आत्महत्या की वजह से लगातार पोस्टमॉर्टम हो रहे थे।”
देश के समाजशास्त्री अक्सर कृषि संकट की त करते हैं, साईनाथ उस संकट को कुछ लफ़ज़ों में समझाते हुए कहते हैं, ”ये एग्रेरियन क्राईसिस (कृषि संकट) आंखिर है क्या? इसका जवाब केवल एक लाईन में दिया जा सकता है कि कॉर्पोरेट फॉर्मिंग की तरफ बढ़ता हुआ चलन ही कृषि संकट है। ये कृषि संकट उपजता कैसे है ? गाँवों को लूटने वाले व्यावसाईकरण के ज़रिये। इससे हासिल क्या होता है? भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन।”
देश पर लादे गये इस कृषि संकट की वजहों पर तल्ख अंदाज़ में रोशनी डालते हुए साईनाथ कहते हैं, “लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स से आने वाले लोग या हावर्ड स्कूल में डवलप्मेंट स्टडीज़ पढ़के आये लोग या कैनेडी स्कूल से पढ़के आये लोग थ्री पीस में बैठकर उन किसानों के लिये नीतियां बनाते हैं, जिनके बारे में वो कुछ भी नहीं जानते, जिनके काम के बारे में वो कुछ नहीं जानते।”
वो बताते हैं कि सरकार ने पिछले बीस सालों में ये किया है कि इन्सानों की अहमियत को महज लेनदेन की वस्तु तक सीमित कर दिया है। क्योंकि इनसे खेती में फायदा नहीं हो रहा इसलिये ये खेती में नहीं होने चाहिये , इनको मर जाना चाहिये? खेती को लोग छोड़ तो दें लेकिन उनके लिये उद्योग कहां हैं? वो लोग जिनके लिये इस देश में शिक्षा की व्यवस्था नहीं है, जिनके लिये स्वास्थ्य की व्यवस्था नहीं है, जिनके लिये साफ-सफाई की व्यवस्था नहीं है, वो लोग खेती छोड़कर जायेंगे कहां?”
रोजगार के हालातों पर बात करते हुए वो कहते हैं, “1990 में पहली बार रोजगार की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से नीचे गिरी , करोड़ों लोग उस नौकरी की खोज में गाँवों से शहरों की तरफ गये जो वहां उनके लिये है ही नहीं। इस चक्कर में असंख्य परिवार बिखर गये क्योंकि एक ही परिवार के लोग अलग अलग नौकरी खोजने के लिये अलग अलग क्षेत्रों में चले गये। 1943 के बंगाल के अकाल के बाद 1990 में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार 6 प्रदेशों को भुखमरी के लिये तलब किया। पिछले 15 सालों में देश का सबसे तेजी से विकास कऱ रहा क्षेत्र आईटी नहीं है, सौफ्टवेयर नहीं है वो असमानता।
आर्थिक सुधारों के दौर में भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की दर बहुत तेजी से गिरी है। 2002-2003 में जब हमारे खुद के देश के लोग भूख से मर रहे थे हमने 20 मिलियन टन खाद्यान्न का निर्यात किया। हमने 5 रुपये 45 पैसा प्रति किलोग्राम के हिसाब से खद्यान्न का निर्यात किया और हम अपने ही देश के गरीब लोगों को उसे 6 रुपये 45 पैसा प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेच रहे थे। हमने इसे किसके लिये निर्यात किया। हमने इसे निर्यात किया योरोप के पालतू पशुओं के लिये। योरोप की गाय दुनिया की सबसे ज्यादा फूड सिक्योर प्राणी है उसके खाने पर हर दिन के हिसाब से 2.7 डॉलर खर्चा जाता है। विदर्भ के जाने माने विचारक मिस्टर जावन्ड्या से जब पूछा गया कि भारत के किसान का सपना क्या है तो उन्होंने बिना हिचक के जवाब दिया कि भारत के किसान का सपना है योरोप की गाय के रुप में पैदा होना है।
अमीरों को इस देश में हर घंटे के हिसाब से 6 मिलियन डॉलर की सब्सिडी दी जाती है। बजट के बाहर उन्हें जमीन, बिजली की छूट दी जाती है। मुम्बई के मॉल्स में, कॉर्पोरेट ऑफिसों में 20 घंटे से ज्यादा न जाने कितनी बिजली खर्ची जाती है। अगर इन जगहों पर 20 मिनट की भी बिजली कटौती हो जाती है तो विदर्भ के प्रभावित जिलों में दो घंटे की बिजली मुहैयया कराई जा सकती है। लीलावती, या अपोलो अस्पतालों को देखों उन्हें न जाने कितनी सरकारी ज़मीन इस शर्त पे दे दी गई कि उनमें 30 फीसदी तक बिस्तर गरीबों के लिये रिजर्व रहेंगे। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
किसके लिये ये सरकार है ये साफ है। जब बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का संवेदी सूचकांक गिरा तो देश के वित्त मंत्री को अरबपतियों के आंसू पोछने स्पेशल फ्लाइट से मुम्बई आने के लिये 2 घंटे लगे लेकिन देश के प्रधानमंत्री को इसी प्रदेश के उन इलाकों का दौरा करने में 10 साल से भी ज्यादा लग गये जहां सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1995 के बाद 40 हज़ार से भी ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली।
देश के किसानों के प्रति सत्तासीनों के रवैय्ये की सारी तहें खोलने के बाद फिल्म के आंखिर में पी साईनाथ नीरो के मेहमानों के किस्से पर वापस आते हैं। वो कहते हैं, “टेसिटिस (रोम के इतिहासकार) ने कहा कि (रोम में) नीरो ने आग नहीं लगाई लेकिन वो बहुत डरा हुआ था। इसलिये उसे प्रभावशाली लोंगों का ध्यान भंग करना था इसके लिये उसने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी दी जिसमें रोम के सबसे प्रतिष्ठित लोग आये। समस्या एक ही थी कि इतनी बड़ी पार्टी के लिये प्रकाश की व्यवस्था कहां से की जाये। नीरो ने इसका समाधान निकाला। उसने अपनी जेलों के सारे कैदियों को निकालकर उस इलाके में बांधा और उन्हें जलाकर उस इलाके में उजाला किया किया। इन लोगों में रंगकर्मी थे, कलाकार थे, पेन्टर थे, साहित्यकार थे लेकिन किसी एक ने भी इसका विरोध नहीं किया।”
“हम देश की समस्याओं के समाधान के बारे में अलग राय रख सकते हैं लेकिन इस एक बात पर हम एकमत हो सकते हैं कि हम नीरो के मेहमान नहीं बनेंगे।” फिल्म पी साईनाथ के इस सुझाव पे खत्म हो जाती है। किसानों और गाँवों के सरोकारों से जुड़ी अब तक की सबसे संजीदा फिल्मों की सूचि बनी तो नीरोज़ गेस्ट उनमें ज़रुर गिनी जाएगी।