वे फैज नहीं हैं फैजा हैं इसलिए उनका अंदाजे बयां अलहदा है। फैज शब्दों से अपनी बात कहते थे फैजा ने वृत्तचित्र के जरिये कही। और जो कही कमाल कही। किसी कविता सी दिल में उतर गई चित्रों के कई वृत्त सी बनाती जैसे नदी के शान्त प्रवाह में कंकड़ को हल्के धकेल दिया हो। फैजा अहमद खान आरै कुहू तनवीर की फिल्म सुपरमैन आफ मालेगांव एक डाक्यूमेंटी फोर्म की फिल्म है। पूरी फिल्म एक फिल्म बनने की प्रक्रिया से जुड़ती है और फिल्म के भीतर उस फिल्म के बन जाने और प्रदर्शित हो जाने के बाद तक चलती है। पहले तो ये फिल्म ही अच्छी बनी है और उसपर जिस फिल्म की ये चर्चा करती है वो भी गजब ढ़ा गई है।
बम धमाकों की वजह से चर्चा में आया था मालेगांव
मलेगांव चर्चा में तब आया जब एक मोटरसाईकिल में रखे बम से हुए धमाके में वहां सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। लेकिन हम आप में से कम ही लोग जानते हैं कि वहां एक फिल्म इन्डस्ट्री है। इस इन्डस्ट्री की खास बात है कि इसमें काम करने वाले लोग कोई बड़े फिल्मी सितारे नहीं हैं बल्कि मालेगांव के हैन्डलूम पावर कारखाने में काम करने वाले मजदूर हैं। और निर्देशक गांव के ही नासिर भाई हैं। जिन्होंने एक सपना देखा और फिर जुट गये उसे पूरा करने में। सपना कि अपनी कुछ फिल्में बनें। मालेगांव के लोगों के द्वारा, मुम्बईया फिल्मों के समानान्तर। 1999 में उन्होंने बालिवुड की मसहूर फिल्म शोले की रिमेक बनाई और फिर ये सिलसिला चलता रहा। लेकिन इसबार उन्होंने बालिवुड को पीछे छोड़ने की ठानी और सुपरमैन का रिमेक बनाने में जुट गये। लेकिन कहानी आसान नहीं रही।
बिना संसाधनों के बनाई फ़िल्म
पैनासोनिक के साधारण से हैंडीकैम से सूट करने की चुनौती उसपर संसाधनों के नाम पर कुछ नहीं। न डौली न क्रेन। उस पर उड़ने वाले सुपरमैन को फिल्माना। क्रोमा तकनीक का पता करने किसी स्टूडियो गये तो पूरे दो लाख रुपये के खर्च की बात सुनकर हौसले कुछ कम हुए नासिर भाई के। इतने में तो हमारी चार फिल्में बन जायेंगी। कहा और कुछ और सोच लिया। जुगाड़ तो होते ही हैं दुनिया में। क्रेन के लिये बैलगाड़ी और ट्राली के लिए साईकिल और ट्रक की मदद ली गई। सुपरमैन का किरदार एक मसलमैन ने नहीं बल्कि एक पतले से सीधे साधे मजदूर ने निभाया। पूरी कौमेडी फिल्म बनाई नासिर भाई ने। फिल्म ने सबको खूब गुदगुदाया पर किसी की मजाल जो उनके इस प्रयास की कोई हंसी उड़ा सके।
जब आप फैजा साहब की इस डौक्यूमेंटी को देख रहे होते हैं तो आपकी आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं कि कोई इतने कम संसाधनों में ऐसे प्रयास की सोच भी सकता है। कितनी लगन होगी उस आदमी में जो असम्भव से दिखने वाले प्रयास को बिना पैसे बिना किसी संसाधन के अंजाम दे रहा है। मालेगांव का सुपरमैन दरअसल एक प्रेरणा है। कि फिल्में बनाने के लिए जिस चीज की सबसे ज्यादा जरुरत है वो है इच्छाशक्ति। फिल्म आपको मालेगांव के इन किरदारों से इतना जोड़ देती है कि फिल्म के एक दृश्य में सूटिंग करते हुए नासिर भाई का कैमरा पानी में गिर जाता है और सिरीफोर्ट औडीटोरियम में बैठे दर्शक सकते में आ जाते हैं। ओह सिट। ओेह नो। फक। इस तरह की फुसफुसाहट औडी में होने लगती है।
ऐसे प्रयासों की मदद करने कौन आएगा आगे?
क्योंकि लोग जान रहे हैं कि उस कैमरे में मालेगांव और नासिरभाई का सपना छुपा है। उस सपने से, देखने वाला इतना जुड़ जाता है कि वो तब तक परेशान रहता है जब तक उसे पता नहीं चल जाता कि कैमरा ठीक हो गया है। इस दुबले-पतले सुपरमैन की अदाएं खूब गुदगुदाती भी हैं दर्शकों को। उसका उड़ना कैसे सम्भव हो जाता है ये चैंकाता है। कैसे एडिटिंग अपना कमाल दिखाती है और फिल्म पहुंचती है अपनी टार्गेट आडियंस के पास। मालेगांव के लोगों के पास।
फैजा का ये पूरा वृत्तचित्र बहुत ही लाजवाब बन पड़ा है। डौक्यूमेंटी की स्टीरियोटिपकल फोर्म को तोड़ता सा। साथ ही एक बड़ा सवाल भी फिल्म खड़ा करती है कि क्या स्टार सिस्टम के समानान्तर हो रहे इन छोटे छोटे क्षेत्रीय स्तर के प्रयासों का कोई योगदान फिल्मों के विकास में है भी कि नहीं और यदि है तो क्या उनकी मदद के लिए आकाश से फरिस्ते आयेंगे और तब तक हम ऐसी फिल्मों से रुबरु कराती कुछ बड़े बैनर की फिल्मों को आसियान जैसे फेस्टिवल में दिखाकर ही खुश होते रहेंगे। क्या हम तब तक यही कहते रहेंगे कि वाह मालेगांव में क्या सही काम हो रहा है फिल्मों पर, तब तक जब तक ये अनूठा सिनेमाई प्रयास दम तोड़ चुका होगा। किसी मदद का इन्तजार करते करते।
उमेश जी सीरी फोर्ट में ही हूं मिल तो लें।
जहाँ चाह है वहाँ राह है ।