एक ‘क्वीन’का आज़ाद होना

(Last Updated On: March 11, 2014)

दिल्ली में कॉलेज आने जाने वाले लड़कों के बीच एक टर्म बहुत प्रचलित है। ‘बहन जी‘। ‘बहन जी टाइप‘ होना शहरी परिप्रेक्ष में एक लड़की के लिये अच्छा नहीं माना जाता। ‘यूथ‘ की भाषा में कहें तो ‘हैप‘ होना शहर के युवाओं की मुख्यधारा में आने के लिये एक ज़रुरी मानदंड है। इसके उलट परिवार और सगे सम्बन्धियों की परिभाषा में ‘बहन जी टाइप‘ लड़की एक आदर्श लड़की है। फिल्म क्वीन की कहानी में रानी की आयरनी शायद यही थी कि वो ‘हैप‘ नहीं थी। ‘बहन जी टाइप‘ थी।

हैप लड़की होने के लिये ज़रुरी है कि वो गिटर-पिटर अंग्रेजी में बतिया सके। सलवार सूट जितना हो सके कम पहने और आधुनिक कपड़े जितना हो सके ज्यादा पहने। अमूमन लड़के ऐसी ही लड़कियों को हैप मानते हैं। और अपनी जिन्दगी को हैपनिंग बनाने के लिये वो ऐसी लड़कियों को ‘पटाने‘ का हर नुस्खा आजमाते हैं। ऐसे में ‘प्यार‘ बस ‘किसी और‘ भावना पर चढ़े रैपर की तरह हो जाता है। एक रंगीन रैपर जिसमें बाकी सारी भावनाएं होती हैं बस प्यार कहीं नहीं होता।

रानी दिल्ली में ‘रजोरी’ की रहने वाली एक ऐसी ही ‘बहन जी टाइप‘ लड़की है। जो एक आम मध्यवर्गीय परिवार के नियम कानूनों में खुशी-खुशी बंधी है। या फिर खुशी असल में होती क्या है उसे ये जानने का कभी मौका ही नहीं मिला। पापा की मिठाई की दुकान है। मां हाउज़वाइफ हैं। एक छोटा भाई है। पापा के दोस्त का एक लड़का विजय उसे पसंद करने लगता है। रानी उसे पसंद तो करती है पर कुछ दिन घुमाती है। वो उसे मनाता है। और प्यार परवान चढ़ता है। शादी तय हो जाती है। रानी खुश है। सब कुछ अच्छा चल रहा है। एक आम जिन्दगी। बिल्कुल उस ढ़र्रे पर जिसपर चलते हुए 90 फीसदी भारतीय लड़कियां ‘खुश‘ रहती हैं। हमारे सामंती समाज में उनके हिस्से में जो बची-खुची खुशी है उसी में खुश।

पर रानी यहां एक आम भारतीय लड़के की उस सोच का शिकार हो जाती है जिसके हिसाब से एक आदर्श लड़की वही है जो ‘हैप‘ हो पर किसी सार्वजनिक जगह पर खुलकर बात न करे। शादी वगैरह में अपनी मनमर्जी से न नाचे और अपनी शादी में तो ना…. बिल्कुल नहीं। मॉडर्न कपड़े पहने पर बस उसके लिये। उसकी सोच आधुनिक हो पर उस आधुनिकता की परिभाषा को तय लड़का ही करे। मतलब ये कि कहां आधुनिक लगना है कहां नहीं वो लड़का तय करे। अपनी मनमर्जी के एवज़ में अपने तौर तरीकों, रहन-सहन, फैसलों और आजीविका आदि के लिये वो लड़के पर निर्भर हो जाये। एक लाईन में कहें तो ‘शादी‘ नाम के खूंटे में बंधकर वो अपनी आज़ादी लड़के के नाम कर दे। बस।

रानी अब तक इस ‘खुशी‘ को हासिल करने के लिये खुशी खुशी तैयार बैठी है। लेकिन शादी के ठीक दो दिन पहले विजय उसके और अपने लिये बिना उससे पूछे एक फैसला कर लेता है। क्योंकि अब वो विदेश जा चुका है और वहां जाकर ‘बदल‘ गया है और उसे लगता है कि इस बदलाव के साथ रानी ‘एडजस्ट‘ नहीं कर पाएगी। क्योंकि वो अभी ‘वैसी ही‘ (बहन जी टाइप) है। तो ये उसके लिये ही अच्छा है कि वो ये शादी ना करें। और ये बात शादी से ठीक दो दिन पहले कॉफ़ी शॉप में विजय रानी को बताता है। रानी अब तक विजय के साथ अपनी भावी जिन्दगी के हवामहल बनाते हुए काफी आगे निकल आई है। ये हवामहल जब अचानक चकनाचूर हो जाता है तो उसे कुछ समझ नहीं आता कि ये कैसा मज़ाक है। उसे भरोसा नहीं होता कि विजय ऐसा कैसे कर सकता है। लेकिन विजय तो एक लड़का है। वो कुछ भी कर सकता है। एक लड़की के लिये खुद फैसला लेने से लेकर उस फैसले को बिना सलाह मशविरा किये बदल लेने तक। कुछ भी।

रानी की तो जैसे दुनिया उजड़ गई है। वो इस सच से बाहर नहीं आ पा रही। और इस हालत में वो एक अजीब सा फैसला लेती है। वो बिना शादी के, और बिना अपने टल गये पति के, अपने हनीमून पे जाना चाहती है। परिवार वाले उससे प्यार करते हैं उसे सदमे में देखकर वो इस अजीब से फैसले के लिये उसे मना भी नहीं कर पाते। वीज़ा, टिकिट, होटेल सब पहले से तय है। वो कुछ दिनों के लिये अपनी उजड़ गई जिन्दगी से दूर एक अनजान सफर पर निकल जाती है। एक सफर जो उसकी जिन्दगी को पूरी तरह बदल देता है।

अब वो पेरिस में है। अनजान लोगों के देश में। अपने टूटे हुए आत्वविश्वास को बटोरती वो अपने होटेल में पहुंचती है। होटेल जो उसके उस टल गये पति के नाम पर बुक है जिसके बिना वो अपना ही हनीमून मनाने अकेले आई है। अपने भारी सूटकेस को घसीटती वो होटेल के कमरे में पहुंचती है। संकोच इतना कि अपने कमरे की खिड़की का परदा तक खोलने में हिचकिचाहट हो रही है। तभी एक चीख सुनकर वो डरती है। ये एक लड़की के चीखने की आवाज़ है जो दूसरे कमरे से आ रही है। डरते हुए वो बालकनी में पहुचती है जहां एक लड़की है। सिगरेट पीती हुई। जो बालकनी में बैठे हुए सड़क पर जाते उस लड़के को झिड़क रही है जिससे उसने अभी-अभी गेस्टरुम में सेक्स किया है।

रानी उस लड़की को देखकर हैरत में है। उसकी नज़र में वो एक ‘गन्दी’ लड़की है जिसे कपड़े तक पहनने का शउर नहीं है। अगले दिन वो लड़की उसके कमरे में आकर रानी से रिक्वेस्ट करती है कि वो होटेल के मैनेजर को ना बताये कि कल रात वो गेस्ट रुम में एक गेस्ट के साथ थी। धीरे-धीरे कुछ और मुलाकातों के बाद रानी विजय लक्ष्मी नाम की उस लड़की को और पास से जानती है। दोनों में अच्छी दोस्ती हो जाती है। वो उसे पेरिस घुमाती है। उस दुनिया से रुबरु कराती है जिसमें बेपरवाही है, मनमर्जी है, उत्सृंखलता है, आवारगी है, वो सब कुछ है जिसे एक मध्यवर्गीय भारतीय समाज से आने वाली रानी ने आज तक कभी अनुभव ही नहीं किया। उसे ये सब अच्छा लग रहा है। वो धीरे धीरे उन अदृश्य सलाखों से आज़ाद हो रही है जो उसके घर-परिवार या होने वाले पति ने उसकी भलाई के नाम पर उसकी इच्छाओं के आगे लगा दी थी। जिन्हें तोड़ने का न उसमें साहस था, न इसका हक उसे दिया गया था। आज जब वो सलाखें टूट रही हैं तो रानी के भीतर की छिपी ‘क्वीन’ भी आज़ाद हो रही है। यहां वो अपनी मनमर्जी से नाच सकती है, घूम सकती है। विजय लक्ष्मी के द्वारा सुझाये गये हौस्टल में तीन अजनबी लड़कों के साथ एक कमरे में रह सकती है। उनसे दोस्ती कर सकती है। एक क्यूट से लगने वाले शैफ के सामने पहले खुद को अच्छे कुक के रुप में साबित कर सकती है और उसे अपनी जिन्दगी का पहला किस कर सकती है।

आधुनिक कपड़े पहनकर वो क्वीन जब अपनी फोटो शेयर करती है तो विजय का दिमाग खराब हो जाता है। उसने रानी के अन्दर की इस क्वीन को कभी देखा ही नहीं था। या फिर अनजाने ही उस क्वीन को बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया। अब जब उसे खुद क्वीन हो जाने का मौका मिला है तो ऐसे विजय जिनके लिये उसकी इच्छाएं कहीं मायने ही नहीं रखती थी वो उसकी जूती पर आ जाते हैं। अब वो जान गई है कि किससे उसे दोस्ती करनी है और कौन उसके काबिल नहीं है।

क्वीन पिछले दौर में आई शादी की पृश्ठभूमि पर बनी तमाम फिल्मों में से एकदम ताज़ा और सधी हुई फिल्म है। ‘शुद्ध देसी रोमांस’ या ‘हंसी तो फंसी’ जैसी फिल्में जिस मेच्योरिटी के अभाव में सतही सी हो जाती हैं, क्वीन उस मेच्योरिटी के साथ बनी फिल्म है और इसलिये इन सबसे अलग है। ये फिल्म दरअसल उन छोटे-छोटे लमहों और प्रतीकों के दिल छू लेने वाले फिल्मांकन की वजह से एक बेहतर फिल्म हो जाती है जो आमतौर पर पटकथाओं में नज़रअंदाज़ कर दिये जाते हैं।

विजय से मिलकर कॉफ़ी शॉप से रोती हुई बाहर आती रानी को देखकर छोटे भाई का विजय को उंगली दिखाना, दादी का होटल के कमरे से निकलकर घूमने फिरने के लिए कहना, एफिल टावर को देखकर रानी को होने वाली वो अजीब सी उलझन, डिस्क में नाचते हुए पिये होने के बावजूद अपने कार्डिगन को अपने बैग में ठूसना, हॉस्टल से निकलते वक्त अपने नये दोस्त के स्वर्गवासी मम्मी-पापा की तस्वीर के बगल में अपने शादी के कार्ड को चस्पा करना, अपने दोस्तों के साथ रौक शो में जाने के लिये रानी का विजय को दूसरे दिन मिलने के लिये कहना, एयरपोर्ट से निकलते हुए रानी के चेहरे पर आया वो गज़ब का आत्मविश्वास, फिल्म में ऐसे कई लमहे हैं जो एक छोटे से दृश्य में बहुत गहरी बातें कह जाते हैं। इन प्रतीकों को पटकथा में जिस सटीक तरीके से पिरोया गया है वो इस फिल्म की खासियत है।

कगना रानाउत ने क्वीन के किरदार को एकदम जीवंत बना दिया है। उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वो एक बेहतरीन अदाकारा हैं। राजकुमार यादव इस फिल्म में अपने किरदार में कुछ नयापन नहीं ला पाये हैं। उनके लिये शायद कहानी में ज्यादा स्कोप था भी नहीं। क्वीन उनकी नहीं कंगना रानाउत की फिल्म थी। लिज़ा हेडन ने भी एक बेपरवाह, आज़ाद खयाल लड़की के अपने किरदार को बखूबी निभाया है। अब तक प्रोड्यूसर के रुप में फिल्म जगत में चर्चित विकास बहल का निर्देशन बहुत सधा हुआ है।

फिल्म हमारे समाज में लड़कियों की कुचल दी जाने वाली उन इच्छाओं के समर्थन में खड़ी होती है जिन्हें मोरेलिटी के नाम पर खारिज कर दिया जाता है। आज़ादखयाली और आवारगी से जीने की इच्छा रखने वाली लड़कियां ‘खराब‘ नहीं होती फिल्म ये बात बड़े सहज ढ़ंग से कह जाती है और सबसे अच्छी बात ये कि ये बात कहते हुए ये फिल्म (हालिया आई इम्तियाज अली की फिल्म हाइवे की तरह) कहीं भाषण देती हुई नज़र नहीं आती।

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