क्या है ये जो दिमागों में इस हद तक भर जाता है कि मन को खाली कर देता है ?
समाज में उन मान्यताओं का क्या अर्थ है जिनसे जीवन जैसी नायाब नेमत भी किसी ख़ास वर्ग या व्यक्ति के लिए अर्थहीन हो जाती है. हमारी जाति, हमारा धर्म, हमारी सत्ता, हमारी संस्थाएं, हमारा ओहदा इतना बड़ा कैसे हो सकता है कि उसके सामने मानवता बार-बार हार जाती है ?
हमारे-आपके आस-पास होते हुए भी कोई इतना खाली इतना, बेजार कैसे हो जाता है कि उसके लिए अपने ही अस्तित्व के कोई मायने न रह जाएं ?
क्यों हमारा समाज अपनी सामूहिकता में इतना क्रूर और आक्रामक हो गया है कि वैयक्तिक रूप से लगातार एकाकी और उदास होता जा रहा है ?
खुद के वर्चस्व के लिए हम अपने बीच ही उन इलाकों को क्यों तलाशने लगते हैं जिन्हें हाशिये पर धकेला जा सके ?
हमारी सामाजिक बुनावट में वो कौन से फंदे हैं जो अक्सर छूट जाते हैं और हमारी सामूहिक मेहनत से बिना हुआ समाज जगह-जगह से उधड़ने लगता हैं ?
रोहित वेमुला ने जीवनभर ऐसा क्या हासिल किया कि उसके पास खुद के वजूद को जिंदा रखने की वजह तक शेष न रह सकी ?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनसे इस आत्महत्या को ‘कायरता’ करार देकर बड़ी आसानी से किनारा किया जा सकता है. पर एक दिन इतनी ही आसानी से भेदभाव पर आधारित ये तथाकथित समाज आपसे भी किनारा कर सकता है. अपनी सहूलियत से चुनी हुई इस वर्चस्वशाली सामूहिकता की जड़ों को कभी ठहरकर तलाशियेगा वहां निजी तौर पर आप खुद को निहायत अकेला खड़ा पाएंगे.