जनाब आप किस नेट न्यूट्रेलिटी की बात कर रहे हैं ? क्या सचमुच नेट पर न्यूट्रेलिटी या इन्टरनेट तटस्थता जैसी कोई चीज़ सम्भव है ? क्या वर्तमान परिप्रेक्ष में इन्टरनेट की दुनिया वैसी है जैसी हम असल दुनिया को बनाना चाहते हैं ? वो दुनिया जिसमें तमाम संसाधनों पर सभी का बराबर हक हो। क्या सचमुच ये घास उतनी ही हरी है जितनी इसे बताया जा रहा है ?
फर्ज कीजिये कि आप गो डैडी पर एक डोमेन खरीदते हैं। तो गो डैडी वाला आपसे क्या कहता है ? सरजी हमें कुछ और पैसा दे दो, हमी से होस्टिंग करवा लो। फिर देखो हम आपको कैसे चकाचक एसईओ यानी सर्च इन्जन आॅप्टिमाजेशन में आगे कर देंगे। आपकी वेबसाइट फास्ट-फास्ट खुलने लगेगी। और आप दुगुनी-तिगुनी रफ्तार से दुनिया में करोडों लोगों के पास वैबसाईटों की भीड़ को चीरते हुए आगे चले जाएंगे। यानी कि उन्हें पैसा दो। वो आपको पुश करेंगे। फिर फोटो, वीडियो आदि आदि के लिये कई सारे फीचर्स भी हैं जिन्हें इन्टरनेट पर खरीदकर आपको फास्ट वीडियो अपलोड और फास्ट तस्वीर ट्रांजिशन वगैरह वगैरह की सुविधाएं मिलती हैं। इन फीचर्स को आप प्लगिन कहते हैं। अगर आप पैसा खर्च करके इन सबका अस्तेमाल कर सकते हैं तो आपको वरीयता में आगे कर दिया जाएगा। ये आज से नही ंतबसे हो रहा है जबसे इन्टरनेट की दुनिया का बाज़ार बनाने वाले अपना दिमाग लगा रहे हैं। इसे अब ज़रा दूसरे चश्मे से देखें। बीबीसी की डाॅक्यूमेंट्री आई। सरकार को लगा, ना जी ये हमारे देश की सेहत के लिये अच्छी बातें नहीं कर रही। तो उस पर बैन लग गया। एआईबी वालों की बकवास बकैती रोस्ट पर अश्लीलता फैलाने के आरोप लगे, तो सरकार की आंखें फिर तिरछी हो गयी। उसे भी यूट्यूब पर खामोश कर दिया गया। तो ये थी आपकी नेट न्यूट्रेलिटी श्रीमान ? माने ये कि नेट पर न्यूट्रेलिटी जैसा कोई काॅन्सेप्ट दरअसल है ही नहीं और हम एक ऐसी चीज़ को बचाने के लिये हो-हल्ला मचाये जा रहे हैं जिसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है।
नेट न्यूट्रेलिटी का दूसरा पक्ष यानि मार्केट प्लेयर्स के हितों का टकराव
तो कहीं ऐसा तो नहीं कि नेट न्यूट्रेलिटी (आम भाषा में समझें तो इन्टरनेट के प्रयोग पर बराबरी का हक) का सम्बंध दरअसल हमारे मौलिक अधिकारों से उतना है ही नहीं जितना हल्ला मचाया जा रहा है। सवाल यहां बाज़ार के बड़े मार्केट प्लेयर्स के कान्फ्लिक्ट आॅफ इन्ट्रेस्ट यानि हितों के टकराव का है। कल मैं अपने एक जानकार साथी से बात कर रहा था तो उन्होंने इस मसले को समझने के लिये एक बड़ा अच्छा उदाहरण दिया। उन्होंने कहा- देखिये, हम जिस काॅफी शाॅप में बैठे हैं मान लीजिये कि उसके मालिक ने इसमें लोगों को तरह तरह के स्टाॅल लगाने की अनुमति दे दी। तो लोगों ने कई तरह की समाग्री यहां सजाई और उसे बेचना शुरु कर दिया। अब धीरे धीरे कुछ लोग आये जिन्होंने काॅफी के स्टाॅल लगाने शुरु कर दिये। तो भई स्वाभाविक है कि अब उस काॅफी शाॅप के मालिक को उससे दिक्कत होगी ही। उसी की दुकान में मुफ्त का स्टाॅल लगाकर कोई काॅफी बेचेगा वो भी लगभग मुफ्त के दामों में तो इससे तो सीधा असर उस मालिक के बिजनेस पर पड़ेगा। और कोई मालिक ऐसा क्यों चाहेगा ? उसने पूरी काॅफी शाॅप को बनाने में पैसे लगाये ह,ैं वो अपने कर्मचारियों की तनख्वाह पर भी पैसा खर्च कर रहा है। माने उसका इन्वेस्टमेंट का स्टेक इस शाॅप से होने वाले बिजनेस पर ही निर्भर करता है। आप इस काॅफी शाॅप के ओनर की जगह टेलीकाॅम कम्पनियों को रखकर देख लीजिये। और उन स्टाॅल वालों की जगह फेसबुक, व्हट्सऐप, वाइबर, वीचैट वगैरह को रख लीजिये तो साफ हो जायेगा कि नेट न्यूट्रेलिटी की ये बहस फेयर है या अनफेयर ? नैट न्यूट्रेलिटी के विपक्ष में दिये जाने वाले तर्क को समझने के लिये यह उदाहरण काफीे ज्यादा मुफीद लगता है।
इन्टरनेट पर मालिकाना हक आखिर है किसका ?
पर यहां सवाल दरअसल यही है कि क्या ये ज़मीन जिसपर ये काॅफी शाॅप बनी है ये उस मालिक की ही है। या फिर ये ज़मीन उन सभी लोगों की है जो यहां काॅफी पीने आते हैं। काॅफी शाॅप के ओनर ने उस ज़मीन पर अपना इन्फ्ास्ट्रक्चर खड़ा किया। और उसे लगा कि भई अगर यहां काॅफी के अलावा कुछ और-और चीजें भी बिकने लगे तो एक पंथ दो काज के बहाने शायद ज़्यादा लोग यहां आ जायें। लेकिन तब उसे ये नहीं पता था कि भई ये स्टाॅल वाले इतने कलाकार निकलेंगे कि यहां लोगों का तांता लग जाएगा। इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स यानी आईएसपी और टेलीकाॅम सर्विस प्रोवाइडर्स यानी टीएसपी ने सरकार से महंगे लाइसेंस खरीदे। अपने केबल्स बिछाये। अपने नेटवर्क को बेहतर बनाने में भारी पूंजी खर्च की। पर हुआ ये कि इन्टनेट का बाज़ार एकदम अप्रत्याशित तरीके से बढ़ा और व्यापार में हुनरमंद लोगों ने अपनी पूरी रचनात्मकता लोगों को आकर्षित करने में झोंक दी। अकेले भारत के संदर्भ में देखें तो यहां 2007 में 50 मिलियन इन्टरनेट यूजर्स थे जो 2014 तक बढ़ते बढ़ते 300 मिलियन हो गये। यानि पूरे 6 गुने का इजाफा। मार्गन स्टेनली की एक रिसर्च बताती है कि 2013 में भारत में इन्टरनेट के जिस बाज़ार की ग्राॅस मर्चेन्डाइज़ वैल्यू 11 बिलियन डाॅलर थी उसके 2020 तक 137 बिलियन डालर तक पहुंच जाने का अनुमान है। माने अब ये बाज़ार इतना बड़ा हो गया है कि उसपर हक की लड़ाई शुरु हो गई है। टेलीकाॅम कंपनिया और इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर कम्पनियां चाहती हैं कि क्योंकि इन्फ्ास्ट्रक्चर उनका है तो मुनाफे की बड़ी हिस्सेदारी उनकी होनी चाहिये। यहां बात केवल मुनाफे में हिस्सेदारी तक सीमित होती तो एक हद समझी जा सकती थी। अब बात ये हो रही है कि ये सर्विस प्रोवाइडर्स इन्टरनेट की दुनिया के छोटे व्यापारियों पर अपनी मोनोपोली चाहते हैं। वो चाहते हैं कि जो उन्हें पैसे दें उन्हें इन्टरनेट की दुनिया पर वरियता मिले। उनकी स्पीड अच्छी हो, इन्टरनेट के मायाजाल में उन्हें खोजने में आसानी हो वगैरह वगैरह। माने कि उन्हें पुश किया जाएगा। और जो उन्हें पैसे ना दें उनकी रफ्तार को थाम दिया जाएगा। तो दरअसल लड़ाई ये है कि एक यूज़र होने के नाते हमसे ये पुश किये जाने के नाम पर बटोरे गये अतिरिक्त पैसे आखिर वसूलेगा कौन ? इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स या फिर इन्टनेट चालित तरह तरह की ऐप्स या अन्य आॅनलाइन मार्केट प्लेयर्स ?
क्या ये हो सकता है नेट न्यूट्रेलिटी के न रहने पर ?
सोचने वाली बात ये है कि एक यूज़र होने के नाते नेट न्यूट्रेलिटी को हमारे अधिकार का हिस्सा बताकर इन्टरनेट के बाज़ार में पैसा बना रहे छोटे प्लेयर्स कहीं अपनी लड़ाई के लिये हमें हथियार तो नहीं बना रहे ? ऐसा भी तो हो सकता है कि इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स इन प्लेयर्स से जो पैसा वसूलेंगे उससे उनका फाइबर केबल्स और अन्य मदों पर होने वाला खर्च बंट जाये और वो इन्टरनेट की स्पीड की क्वालिटी बढ़ाने में और ज्यादा इन्वेस्ट कर पाये। शायद हमें इन्टरनेट पर एक यूज़र के नाते बेहतर स्पीड मुहैया हो पाये। स्वाभाविक है ये क्वालिटी इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स कोई समाज सेवा के लिये तो बढ़ाएंगे नहीं। इन्टरनेट स्पीड की क्वालिटी जितनी बेहतर होगी उसपर पनपने वाला बाज़ार उतना ही विकसित होगा और इसका फायदा इस बाज़ार के व्यापारियों के साथ क्या पता यूजर्स को भी हो पाये। पर एचबीओ पर आने वाला जाॅन ओलिवर का शो लास्ट वीक विद जाॅन ओलिवर अपने नेट न्यूट्रेलिटी पर बनाये गये वीडियो में इस तर्क को खारिज कर देता है। वो कहता है केबल आॅपरेटर की मोनोपाॅली के बावजूद उसके लिये लाॅबीइंग करने वाले टाॅम वियर को रेगुलेशन की बागडोर दे देने की बात करना ठीक वैसा ही है जैसे एक बेबी सिटर की ज़रुरत होने पर एक डिंगो (कुत्ते की एक प्रजाति) को हायर कर लेना।
मीडिया में इतने हो-हल्ले के मायने
मीडिया में नेट न्यूट्रालिटी के समर्थन के अपने मायने हैं। अब किसी समाचार चैनल पर भले ही अलग अलग टाइम पर आने वाले विज्ञापनों की दरें अलग अलग हों और वो भी बहुत ऊंची पर वो क्यों चाहेंगे कि इन्टरनेट पर अपना प्रचार-प्रसार करने के लिये उन्हें टेलीकाॅम कम्पनियों को अतिरिक्त पैसा देना पड़े जबकि अब तक सबकुछ बड़े मजे़ से तकरीबन मुफ्त में हो ही रहा है। एआइबी वाले भले ही अलग अलग कम्पनियों से करार कर अपने चटाखेदार वीडियोज़ बनाकर यूट्यूब और अन्य माध्यमों से अच्छा खासा कमा ही रहे हैं पर वो क्यों चाहेंगे कि उनसे उनका फ्रीलंच छीन लिया जाये। कहीं ये एक तरह की हिप्पोक्रेसी तो नहीं है कि हमारे यहां आकर कुछ करना चाहते हो (मुख्यतह विज्ञापन) तो हमें पैसो दो, लेकिन तुम्हारे यहां हम मुफ्त में आएंगे और उसपर विज्ञापन भी करेंगे और पैसे भी हमीं लेंगे। वो तो अपने इस दोगले रवैये की लड़ाई को नेट न्यूट्रेलिटी के नाम पर लड़ रहे हैं लेकिन एक यूज़र के तौर पर हम उनकी इस लड़ाई में उनका साथ आखिर दे क्यों रहे हैं, क्या ये हमें मालूम भी है ? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि हम एक ऐसे जुलूस में शामिल हो गये हैं जिसमें सब जा रहे हैं लेकिन हमें ये पता ही नहीं है कि वो जुलूस आखिर हो किसके लिए रहा है।
आखिरी जीत उपभोक्ता की होनी चाहिये
पर हां ये भी सोचा जाना ज़रुरी है कि इन्टरनेट पर सर्विस पैक लेने के बाद अपने हिस्से के डेटा का इस्तेमाल करते हुए हम क्या और किस स्पीड से देखेंये हमारे लिये कोई सर्विस प्रोवाडर क्यों तय करे ? नेट न्यूट्रेलिटी के दौर के खत्म होने पर क्या स्वतः ही हमारी इस इच्छा पर उनका एकाधिकार तो नहीं हो जाएगा ? इस सवाल का जवाब एक उपभोक्ता के नाते हमें ज़रुर दिया जाना चाहिये।
तो असल मुद्दा यही है कि अभी इस बहस को अन्धभक्ति से नहीं बल्कि दोनों पहलुओं से देखे जाने की ज़रुरत है। एक लम्बी बहस जिसमें सभी पक्षों को सामने रखा जाये और उसके बाद वही तय किया जाये जो सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक हो जिसमें इस पूरे बाज़ार के आधार उपभोक्ता को सबसे ज्यादा लाभ हो।