बरसात, छाता और वो लड़की

Mumbai Diary : 2 ( Jun 2011)

मुम्बई के बारे में एक बात सुनी थी। मानसून आने के बाद यहां जब बारिश शुरु होती है ना, फिर इतनी जल्दी थमती नहीं। सच ही है। जून से शुरु होकर सितम्बर तक वही झमाझम झमाझम….बारिश जब रिमझिम की आवाज़ में बोलती है तो सन्नाटे की सांय सांय कहीं गायब हो जाती है। मैने बचपन में अपनी हिन्दी की किताब गद्य मंजूषा के किसी पन्ने पर एक निबंध में पढ़ा था कि सन्नाटे की आवाज़ सांय सांय होती है। खैर बारिश की रिमझिमाहट में और भी कई तरह की आहटें होती हैं। कई ऐसी आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं जो सूखे दिनों में नहीं सुनाई देती। बहुत कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जो शायद बस बारिश के दिनों में होती हैं।

उस दिन भी बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। औटो वाले से जब लोखंडवाला मार्केट चलने को कहा तब बारिश कुछ देर के लिये थमी थी। अंधेरी स्टेशन से यही कोई आठ किलोमीटर दूर लोखंडवाला नाम के रिहायसी इलाके में है ये मार्केट। 1978 में सिराज लोखंडवाला ने इस खाली पड़ी जमीन को खरीदा। पूरे वर्साेवा सबअअर्बन एरिया में लोखंडवाला कंस्ट्रक्शन्स एक बड़ा नाम है। इस लगभग आधे किलोमीटर लम्बे बाजार में खाने, पीने, पहनने, संजने संवरने से जुड़ी हर तरह की खरीददारी की जा सकती है। बहरहाल औटो वाले ने जब लोखंडवाला मार्केट में उतारा तो रिमझिम शुरु हो चुकी थी। थोड़ी देर में ही रिमझिम झमाझम में बदल गई। और बगैर छाता के घूमने निकला मैं अपने आप को निहत्था महसूस करने लगा। कुछ देर तर होने के बाद जेब में रखे वालेट और फोन का खयाल आया, सोचा अब वापसी की राह पर निकला जाये। वैसे भी जब आप बिना किसी काम के घर से निकलते हैं तो बिना किसी सवाल के लौट आने की आज़ादी में जी रहे होते हैं। पर बड़े शहर आपको थोड़ा सा अपाहिज बना देते हैं। वहां पैदल यात्रा के सारे कंसेप्ट दूरियों के गणित में उलझके रह जाते हैं। मुझे औटो तलाशना था। एक घंटे तक औटो के इस लम्बे इन्तजार के दौरान लगा कि मुम्बई में इतना इन्तजार तो जौब मिलने के लिये भी नहीं करना पड़ा था। जौब। कितना मशीनी सा लफ्ज है। नहीं ? मुम्बई में अक्सर लोग सपने लेकर आते हैं। उनमें से कई बस जौब और सेलरी लेकर खुश हो जाते हैं।

खैर इस इन्तजार के दौरान एक खास घटना हुई और लगा कि मुम्बई फिल्मों में जीती है। रात का लगभग 9 बज चुका था। अंधेरे को चीरती बारिश स्ट्रीट लाईट की रोशनी से मिलकर चांदी सी बरस रही थी और गाडि़यों की हेडलाईट की रोशनी से नहाई सड़क पर सोने सी गिर रही थी। टिपटिप, रिमझिम, और छपाक की आवाज़ों में घुली गीली हवा माहौल को रुमानी बना रही थी और बारिश का मुखौटा पहनकर दिखाई देने का स्वांग कर रही थी। इसी सब के बीच एक लड़की काफी देर से छाता लेकर औटो का इन्तजार कर रही थी और बिना छाता वालों को भीगते इन्तजार करते थोड़ा सा दयनीय भाव से देख रही थी। इस दौरान एक लड़का भी औटो का इन्तजार करता वहां आ पहुंचा। वो कुछ देर तक बीच बीच में उस लड़की को देखता उसके इर्द गिर्द घूमता रहा और उसे देखकर मुस्कुरा भी देता। कुछ औटो लड़की ने अपने लिये रोके। वो नहीं रुके। कुछ लड़के ने अपने लिये रोके। वो भी नहीं रुके। कुछ देर ऐसा होते रहने के बीच शायद एक बार वो लड़की भी उसे देख के मुस्कुराई। खैर मुझे कुछ देर में एक औटो दिखा और मैं भागकर उस तक पहुंचा। वो पहले से रिजर्व था। मैं वापस अपनी जगह लौटा तो देखा वो लड़का उस लड़की का छाता अपने हाथों में लिये खड़ा था। और दोनों एक ही छाते के नीचे खड़े आधे आधे भीग रहे थे। और पूरा पूरा मुस्कुरा रहे थे। कुछ देर में एक औटो आया। और पिछले कुछ समय से चल रही परंपरा को ठुकराता सा रुका। पहले लड़की औटो में बैठी। लड़के ने उसका छाता बंद करके उसे लौटाया। फिर मुस्कुराया, फिर लौटने को हुआ। अचानक रुका और लड़की से कुछ कहा। और फिर मुस्कुराते हुए औटो में बैठ गया। फिर वो दोनों अजनबी उसमें बैठकर कहीं चले गये। इस बरसात में एक नई कहानी जन्म ले चुकी थी। ऐसी कहानियां अक्सर फिल्मों में देखने को मिलती हैं। पर यहां फ्रेम सामने था। वन टेक ओके शाट की तरह।

वापस आने के बाद दोस्तों से इस प्यारे से लमहे का जिक्र किया तो उन्होंने कहा कि ज़रुर वो लड़की कोई prostitute होगी। पर उन्होंने ये नहीं सोचा कि लड़का भी तो जिगोलो हो सकता है। अरे छोडि़ये ना। हर बात को इतना कौम्प्लिकेट क्यों करें। क्यों इस चीज को इतना सस्ता बनने दें। इसे क्यों ना किसी फिल्म की किसी प्यारी सी प्रेमकहानी की शुरुआत ही मान लिया जाये। जो बूंदों के डर और उस छाते के घर से शुरु होती है और औटो से एक सफर के लिये निकल पड़ती है। कहां और क्यों ये जानना आपके और मेरे लिये इतना जरुरी भी तो नहीं है।

खैर इस बीच महसूस किया कि मुम्बई लड़कियों के लिये एक अपेक्षाकृत सुरक्षित शहर है। रात को एक बजे भी लड़कियां बेहिचक औटो से आ जा सकती हैं। दिल्ली में इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जबकि मुम्बई और दिल्ली दोनों जगहों पर बाहर से आने वाले लोग देश के लगभग एक ही तरह की सामाजिक संरचनाओं में पले बढ़े लोग हैं। लेकिन न जाने क्यों जो लोग दिल्ली जाकर घूरने और स्कैन करने की हद तक ताड़ने की अपनी चारित्रिक विशेषताओं की वजहकर रोड साईड रोमियो का किरदार निभाते हैं वही लोग मुम्बई आकर लड़कियों को लेकर कुछ सहज नज़र आने लगते हैं। शायद इसलिये यहां नज़रें मिलाना आसान है, और इतना खुलापन भी है कि नज़रें चुराने की खास जरुरत ही नहीं पड़ती।

विशमताएं हर जगह होती हैं। छोटे बड़े हर शहर में। पर बड़े शहरों में अक्सर विशमताएं आर्थिक कारणों से होती हैं। जिन्हें फिर भी पाटा जा सकता है। मेरी एक औटो वाले से बात हुई जो उत्तर प्रदेश से मुम्बई आया था। यूं ही कोई चार साल पहले। उसने अपने अब तक के सफर में इतना तो किया कि अपना खुद का औटो खरीद लिया। लगभग पच्चीस साल के उस आदमी ने बड़े जोश और उम्मीद से कहा कि बस दो साल और फिर तो वो कोई अच्छी नौकरी करेगा। आज वो औटो वाला जब भी इन्फिनिटी मौल से गुजरता होगा तो जरुर सोचता होगा कि कुछ सालों बाद वो भी यहां शौपिंग करने आया करेगा। और उसे भरोसा है कि ये शहर उसे पूरा मौका देगा। उम्मीद पर दुनिया कायम जो है। उसे इस शहर में सम्भावना दिखी तभी तो वो कानपुर के किसी छोटे से गांव से यहां तक खिंचा चला आया। वहां वो कुछ नहीं करता था। यहां से कम से कम कुछ पैसा दो तीन महीने में घर भेज दिया करता है और अपने मां बाप को भरोसा भी दिलाता है कि दो तीन सालों में कुछ ज्यादा पैसा भेज दिया करेगा। घर में उसकी मां पड़ौसियों को शान से बताती होगी कि मेरा बेटा मुम्बई में नौकरी करता है। उसने न मुम्बई कभी देखा, न ही मुम्बई में नौकरी कर रहे अपने बेटे का वो तबेले सा कमरा जिसमें शायद वो अपने 10 साथियों के साथ रहता है। या यूं कहें रात काटता है। अब किसी दिन अगर मां ने कह ही दिया कि बेटा मुझे भी घुमा ला मुम्बई तो क्या करेगा वो। कहां ठहरायेगा मां को। उसके ज़हन में तैरने वाले यही सवाल उसे मेहनत करने को मजबूर करते होंगे। उसे एक सपना दिखाते होंगे।

लेकिन जो घर है यानि छोटा शहर या गांव, वहां विशमताओं का आधार कुछ अलग है। जिसे पाटने की दूर दूर तक न कोई कोशिश दिखाई देती है न ही सम्भावना। वहां एक छोटी सी परचून की दुकान चलाने वाला एक उतनी ही छोटी परचून की दुकान चलाने वाले से इसलिये बड़ा है क्योंकि वह बड़ी जाति का है। गांव का एक बेरोजकार निकम्मा सवर्णजाति का छोकरा गांव के दूसरे बेरोजगार निकम्मे निचली जाति के छोकरे को जितनी हेय दृश्टि से देखता है उतनी ही हेय दृश्टि से यहां किसी मौल में घुस आये मजदूर को मौल के किसी शोरुम का मालिक देखता है बिना उसकी जाति की जानकारी के। लेकिन कल अगर वो मजदूर अच्छे कपड़ों में क्रेडिट कार्ड लेकर उसी शोरुम से एक शर्ट खरीद लेगा तो उसके लिये मालिक का व्यवहार बिल्कुल बदल जायेगा। पर गांव का निचली जाति का छोकरा चाहे कल के दिन डाक्टर भी बन जाये तो वो नीची ही जाति का रहेगा। उसे सवर्णों के नौले से पानी नहीं पीने दिया जाएगा। उसे सवर्ण के घर पर जमीन पर ही बैठना होगा। अपने चाय के जूठे गिलास को खुद ही धोना होगा। उस जाति की औरतों को होलियों के दिनों सवर्ण औरतों की बैठकी होली को दूर से देखकर ही खुश होना होगा। अगर वो किसी सवर्ण को गलती से छूंले तो सवर्ण खुद को गोमूत्र डालकर पवित्र करेगा। पिछले दस महीने पहले जब गांव गया था तब तक तो कुछ नहीं बदला था। जाति का ये चेहरा अपनी आंखों से ही देखा था तब। गांव या छोटे कस्बों में ये भेदभावपूर्ण विभाजन जितना जाति केन्द्रित है मुम्बई या किसी और बड़े शहर में वही विभाजन उतना ही पूंजीकेन्द्रित हो जाता है। एक ऐसा पूंजीगत विभाजन जो जाति को तो अर्थहीन कर देता है पर रिश्तों के अर्थ थोड़ा बदल देता है। तभी तो मेरी एक दोस्त बात बात में मुझसे उस दिन कह रही थी कि उमेश अब तो मैं भी ठीकठाक कमाने लगी हूं। आने वाले एक साल में मेरी सैलरी और भी अच्छी हो जायेगी। मेरी market value बढ़ जायेगी। और अगर मैं एक लाख की salary ले रही हूंगी तो पांच लाख से कम कमाने वाले से तो शादी नहीं करुंगी ना।

कभी कभी डर लगता कि ये बाजार हमारी भावनाओं में कितना गहरे तक घुल गया है। हम अच्छे या बुरे नहीं upmarket या downmarket होते जा रहे हैं। हम रुतबा देखकर तय करने लगे हैं कि कौन हमारा दोस्त होगा, कौन नहीं। ये  malls हमारी lifestyle ही बदलें तो बेहतर है, डर ये है कि ये हमें ही न बदल दें। रिश्तों के बीच जिस दिन market value आ जायेगी उस दिन प्यार और अपनापन कहीं दम तोड़ देगा। क्योंकि यही तो एक कीमती जीच है जिसे खरीदा या बेचा नहीं जा सकता। वरना एक दिन कहीं हमारी भावनाओं के साथ साथ हमारी इच्छाएं भी किसी infinity में ऐसे न खो जांयें कि फिर कभी पूरी ही न हों।

अभी रात का तीन बज रहा है। थोड़ी देर पहले ही आईशा के इन्टरमिसन के दौरान अपने रुममेट कम दोस्त ज्यादा के हाथ की बनी मैगी खाई। और बस अभी अभी एक चाय पीते हुए ये फिल्म पूरी की है। और हिस्सों में लिखी हुई आज की ये मुम्बई डायरी भी पूरी होने वाली है। आईशा की बड़ी तारीफ सुनी थी। देख नहीं पाया था। हांलाकि जावेद अख्तर के लिखे हुए उसके गानों ने पिछले कुछ दिनों से अपना एडिक्ट बनाया हुआ था। बड़ी प्यारी फिल्म है। class और status में उलझते रिश्तों को बयां करती एक फिल्म। कभी कभी अपमार्केेट लोगों के फेवर में बायस्ड दिखाई देती एक फिल्म। फिल्म को अगर बहुत ज्यादा एनालिसिस के दायरे में लायेंगे तो पचास मीन मेख निकल ही आयेंगे। लेकिन इतनी रात को इतने complications में उलझने का मन नहीं है। फिल्म देखकर mood काफी light हुआ है। अब लाईट बुझाकर सोने का मन कर रहा है। इसी फिल्म के एक बड़े प्यारे से डायलौग के साथ, आपके साथ आज का ये डायलौग ओवर एन्ड आउट कर रहा हूं।…… जि़न्दगी इतनी simple नहीं है। हम कोई fairy tale में नहीं Delhi में रहते हैं। यहां ranbows नहीं Traffic का धुंआ है। रात को आसमान में एक भी तारा साफ साफ दिखे ना, इतना ही बहुत है।…… ओह हां मुझे भी याद आया…बहुत दिनों से आसमान में कोई तारा नहीं दिखा। सपनों से पहले खिड़की से बाहर एक तारा देखने की कोशिश करुंगा। इससे पहले जब एक दिन टूटता तारा देखा था तो wish मांगना ही भूल गया था। इस बार अगर दिखे तो वो एक विश जरुर मागूंगा। मुझे पता है पूरी तो नहीं होगी। फिर भी Try करने में क्या हर्ज़ है। फिलहाल गुड नाईट। मिलते हैं मुम्बई डायरी की अगली किश्त के साथ।

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उमेश पंत

उमेश पंत यात्राकार के संस्थापक-सम्पादक हैं। यात्रा वृत्तांत 'इनरलाइन पास' और 'दूर दुर्गम दुरुस्त' के लेखक हैं। रेडियो के लिए कई कहानियां लिख चुके हैं। पत्रकार भी रहे हैं। और घुमक्कड़ी उनकी रगों में बसती है।

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