पिछले मुंबई फिल्म फेस्टिवल में अनूप सिंह के निर्देशन में बनी फिल्म ‘किस्सा’ देखी थी.. उसी फिल्म पर की गई टिप्पणी को यहां पोस्ट कर रहा हूँ..फिल्म अभी रिलीज़ नहीं हुई है . ये टिप्पणी ‘स्पौइलर’ भी हो सकती है ..
भारत-पाकिस्तान के विभाजन के उस दौर में जब सिख अपनी रिहाइश के लिए जूझते हुए पाकिस्तान के पंजाब से भारत के पंजाब आ रहे थे, उनसे उनके पैतृक घर छूट रहे थे। उस दौर के भूगोल से अनूप सिंह एक ‘किस्सा’ ढूंढ़ कर लाते हैं। विस्थापित हो रहे सिखों में से एक अंबर सिंह अपने परिवार को लेकर एक नया घर बसाने निकल पड़ता है। कहानी वक्त में छलांगें लेती है। अब एक नया घर हैए पत्नी है, दो बेटियां हैं, पर बेटा नहीं है। मर्द नहीं है जो एक पुरुषवादी समाज में परिवार को अगली पीढ़ी दे सके। जिसके होने से परिवार का तथाकथित भविष्य संवर जाये। ऐसे वक्त में जब अंबर सिंह बेतरह एक बेटे की चाहत में छटपटा रहा है, उसकी पत्नी एक संतान को जन्म देती है। अंबर सिंह के लिए कंवर सिंह के रुप में एक बेटे का जन्म होता है। वो कंवर को एक बेटे की तरह पालता है। बेटियों के सामने उसे हर तरह से वरीयता दी जाती है। वो ट्रक चलाता है। अपने पिता का व्यापार संभालता है। उसे आंच भी आना अंबर सिंह को गंवारा नहीं है। एक तरह का पागलपन है जो बेटे की चाह में उन सारी प्राकृतिक घटनाओं कोए शारीरिक बदलावों को नजरअंदाज कर रहा है। सब कुछ आंखों के सामने साफ हैए पर सब कुछ बेमायने है। मायने हैं तो उस चाह के जो बिना बेटे के पूरी नहीं होती। कंवर का नीली नाम की एक छोटी जात की लड़की से ब्याह दिया जाता है। कंवर नीली को और नीली कंवर को पसंद करते रहे हैं। शादी की रात एक राज खुलता हैए एक राज जिसे जानकर नीली भौंचक्की रह जाती है। अंबर सिंह का रचा, कंवर और उसकी मां का जीया एक झूठ नीली के सामने बेपर्दा हो जाता है कि एक लड़के के रूप में पली पढ़ी संतान दरअसल एक लड़की है।
कंवर अपने अस्तित्व से लड़ने के लिए अभिशप्त है। अपनी ही उन दो पहचानों के बीच जूझती हुईए जिनमें एक सच हैए एक झूठ। वो जो झूठ है समाज उसे एक सच के रूप में जानता है। और वो जो सच है समाज अब उसे स्वीकार नहीं कर सकता। पर कंवर के लिए उस सच को अपनाना जरूरी है। एक झूठ आखिर कब तक जिया जा सकता हैए वो भी तब जब वो आपकी लैंगिक पहचान से जुड़ा हो। नीली के भीतर की स्त्रीए कंवर के भीतर की स्त्री को समझती है। वो उस सच से जूझने में अब तक पुरुष बनकर जिये अपने उस पति की मदद करती हैए जो दरअसल एक स्त्री है। कुर्ता पजामा पहन कर जिये कंवर के लिए आगे की जिंदगी सलवार कमीज पहनकर जीना क्या संभव हो पाएगा ? उस नीली को जिसने अनजाने ही एक स्त्री से प्यार कर लिया है क्या समाज अपना पाएगाघ् उस अंबर सिंह को जिसने संतान की चाह में अपनी ही बहू से संबंध बनाने की कोशिश की और इस कोशिश के विरोध में उसे अपनी ही बेटी ने गोली मार दीए क्या वो अंबर सिंह अपनी आत्मा को कभी संतुष्ट कर पाएगाघ् पूरी फिल्म इच्छाओं के उन्माद से उपजे असंतोष की उदासी को खुद में ओढ़े हुए है। कई अधूरी इच्छाएं हैं, जो यथार्थ के परे किसी दूसरी दुनिया में यथार्थ बन जाने के लिए भटक रही है। अपने न होने में ही अपने होने को तलाशते उन भटकावों में एक दर्शक के तौर पर आप लगातार उलझते चले जाते हैं। उन उलझनों में जहां सुलझने की कोई इच्छा नहीं होती। एक दर्शक के तौर पर आप भी न होने में किसी होने को तलाशने लगते हैं।
किस्सा दरअसल उन किस्सों में शुमार हो जाता हैए जिन्हें आमतौर पर बस इसलिए कभी कहा ही नहीं जाता क्योंकि उसे कहना आपको उलझाने लगता है। और आम जिंदगी में आमतौर हम इस उलझने से बचते हैं। फिल्म आपके इस बचाव के सारे रास्ते बंद करके जो नये रास्ते खोलती है, उनमें भटकना फिर कभी भुलाया नहीं जा सकता। इरफान खान, टिस्का चोपड़ा, तिलोत्तमा और रसिका दुग्गल के शानदार अभिनय याद रह जाने वाले किरदारों का हिस्सा बन जाते हैं।
फिल्म सीधे तौर पर उस उन्माद पर चोट करती है जो हमारे समाज में आज भी एक लड़के की चाहत के रूप में जिंदा है। एक तरह का पागलपन जिसकी बुनियाद बहुत खोखली होने के बावजूद समाज में बहुत गहरे पैठ बनाए हुए है। फिल्म इस पागलपन की एक झलक देती है और आगाह करती है कि ये पागलपन कितने लोगों की जिंदगी एक साथ तबाह कर सकता है। एक चेतावनी भी देती है कि ये तबाही मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ती।